♣♣♣ " ऊपर जिसका अंत नहीं उसे आसमां कहते हैं, और नीचे जिसका अंत नहीं उसे माँ कहते हैं..."

Friday 29 July 2011

"मर्यादा और प्रेम के रूप श्रीराम और श्री कृष्ण"

गवान् राम का चरित्र सर्वथा अनुकरणीय है | उनकी लीला का अनुकरण करो तो भगवान मिलेंगे | भगवान कृष्ण का चरित्र   चिंतनीय है | श्री कृष्ण की लीला चिंतन करने के लिए और चिंतन करके तन्मय होने के लिए है | राम ने ” जो किया ” वह करना है परन्तु श्री कृष्ण ने ” जो कहा ” वह करना है | जब तक राम नहीं आते हैं , तब तक कृष्ण भी नहीं आते हैं | भागवत में मुख्य कथा श्री कृष्ण है | फिर भी राम के आगमन के पश्चात् ही श्री कृष्ण का आगमन होता है | जिसके घर में राम नहीं आते हैं , उसके रावण रूपी काम का नाश नहीं होता और जब तक काम रूपी रावण नहीं मरता , तब तक श्री कृष्ण नहीं आते हैं | इस काम रूपी रावण को ही मारना है | आप चाहें किसी भी सम्प्रदाय के हों , जब तक आप राम की मर्यादा का पालन नहीं करेंगे , आनंद नहीं मिलेगा | मनुष्य को थोड़ा सा धन संपत्ति मिलते ही मर्यादा को भूल जाता है |
राम जी का माता -प्रेम, पिता -प्रेम, भाई – प्रेम , एक पत्नी व्रत आदि सभी कुछ जीवन में उतारने योग्य है |श्री कृष्ण जो करते थे वही सब कुछ करना क्या हमारे लिए संभव है? उन्होंने तो कालिया नाग को वश में करके उसके सिर पर नृत्य किया था | गोवर्धन पर्वत को भी उंगली पर उठा लिया था | क्या हम कर पायेगें ? श्री कृष्ण का अनुसरण करना है तो पूतना चरित्र से प्रारंभ करना है | पूतना का सारा विष उन्होंने पी लिया था | विष का पाचन होने के पश्चात् अन्य सभी लीला का अनुकरण करना है | भगवान रामचंद्र ने अपना एश्वर्य छिपाया था और मनुष्य का रूप धारण कर लीला दिखाई | साधक का आदर्श कैसा होना चाहिए वह राम जी ने बताया है | राम जी का अवतार राक्षसों की हत्या हेतु नहीं , मनुष्यों को मानव -कर्म सिखाने हेतु हुआ था | राम जी की लीला सरल है | उनकी बाल लीला भी सरल है | जब कि श्री कृष्ण की सारी लीला गहन है | राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और श्री कृष्ण पुष्टि पुरुषोत्तम हैं | श्री कृष्ण माखन चोर हैं अर्थात मृदु मन के चोर हैं, वे सर्वस्व ही माँगते हैं |
राम का नाम जैसा सरल है वैसा ही उसका काम, उसकी लीला भी सरल है | राम के नाम में एक भी संयुक्त अक्षर नहीं हैं | कृष्ण के नाम में एक भी अक्षर सरल नही हैं |सभी संयुक्ताक्षर ही हैं | श्री राम को बारह बजे आये थे तो कृष्ण रात को बारह बजे | एक मध्याह्न में आये तो दूसरे मध्य रात्री को | एक राजा दशरथ के महल में अवतरित हुए तथा दूसरे कंस के कारागृह में |
राम जी को पहचानना -समझना सरल है किन्तु कृष्ण को समझना बड़ा कठिन है | किन्तु राम जी की मर्यादा को जीवन में उतारना बड़ा कठिन है |रामचंद्र मर्यादा हैं तो श्री कृष्ण प्रेम | मर्यादा और प्रेम को जीवन में उतारेगे तो सुखी रहोगे |

"तो बोलो! राम... राम ...राम, राधे श्याम श्याम श्याम...
जय जय राम राम राम, राधे श्याम श्याम श्याम...

” जैसा मन में भरा होगा वैसा ही जीवन मिलेगा ”


भागवत पुराण के अनुसार एक राजा हुए जिनका नाम था भरत | वे बहुत ही पराक्रमी और धार्मिक राजा थे | जब उन्हें वैराग्य हुआ तो उनके मन में आया कि इस भौतिक जगत , राज्य इत्यादि में रहने से भक्ति होगी नही , अतः वन में जाना चाहिए | राज त्याग कर वे वन में चले गए | एक कुटिया बनायी और कंद – मूल खाकर रहने लगे | अच्छी दिनचर्या – केवल प्रभु का ध्यान और साधना |
जहां झोंपड़ी बनाई थी , वंही पास में जलधारा बहती थी , जिसमे जंगली जानवर अक्सर जल पीने आते थे | एक बार राजा बाहर बैठकर भगवत – चिंतन कर रहे थे कि देखा , एक हिरनी अपने बच्चे के साथ उस जलधारा में जल पी रही थी | अचानक निकट ही उन्हें शेर के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी | शेर की दहाड़ सुनकर हिरनी घबराकर वेग से जलधारा के पार कूदी | माँ के पीछे -पीछे उसका बच्चा भी कूदा , मगर बीच में ही गिर गया और जान बचाने के लिए हाथ – पैर मारने लगा | बहुत असहाय अवस्था थी | राजा को दया आई | वे जाकर बच्चे को धरा से निकाल लाये | कहीं उसे कोई जंगली जानवर न खा जाये , इस भय से हिरन के बच्चे को अपनी झोंपड़ी में ही रख लिया| धीरे – धीरे वह बड़ा होने लगा | राजा कभी उसके लिए कोमल घास इकठ्ठा करते , तो कभी दूध की व्यवस्था करते | वे उसकी गतिविधियों में खोने लगे | जिस माया को छोड़कर वे वन में आये थे , उसने यहाँ भी उन्हें घेर लिया | अब राजा को हर समय उस हिरन के बच्चे का ही ध्यान बना रहता | कभी उसके खाने – पीने की चिंता करते तो कभी उसकी सुरक्षा की , तो कभी उसका चौकड़ी भरना निहारते रहते | जिस माया पर विजय पाने निकले थे , उसी से हार गए थे |
कृष्ण ने गीता में कहा है कि अंत काल में जो जैसा स्मरण करता है, उसे अगले जन्म में वैसी ही प्राप्ति होती है | राजा भरत का ध्यान अब हिरन में रहता था | इसलिए अंत समय आया तो उन्हें यही चिंता लगी रही कि मेरे बाद इसकी रक्षा कौन करेगा ? भागवत पुराण की कथा के अनुसार वे अगले जन्म में हिरन की ही योनि में पैदा हुए | पूर्व जन्म कि भक्ति के कारण उन्हें सब कुछ याद था, और वे अन्य हिरणों के साथ न रहकर ऋषियों की कुटियों के आस – पास ही मंडराते थे उससे अगले जनम में वे जड़ भरत के नाम से विख्यात हुए इस पूरी कथा को बताने का उद्द्देश्य यह है कि हमारे शास्त्र , हमारे ऋषि , हमारे संत जन सब एक ही बात दोहराते हैं कि मनुष्य जीवन बहुमूल्य है , इसे गंवाना नहीं चाहिए | अक्सर यह बात सुनने को मिलती है कि भई अभी भजन कि क्या आवश्यकता है ? अभी तो हम युवा हैं , बुढापे में देखेंगे कि किसका भजन करना है| लेकिन सच तो यह है कि यही पता नहीं कि हम बुढापा देखेंगे कि नहीं| मान लेते हैं कि हमें किसी प्रकार से लम्बी आयु का वरदान प्राप्त है | लेकिन यह तो स्वाभाविक है किजितनी मेहनत व् प्रयत्न हम अपनी युवा -वस्था में कर लेते हैं, बुढापे में नहीं कर सकते | अगर प्रयत्न पूर्ण नहीं हुआ तो अंत काल में न जाने क्या कारण आ जाए और हमको फिर जन्म -मृत्यु के चक्र में आना पड़ जाये |
कहते हैं कि अगर पत्थर पर भी बार-बार रस्सी फेरो तो निशान पड़ जाता है | अगर हमारे मानस पटल पर दुनियावी बातों के निशान गहरा गए तो अंत काल में भी हमें प्रभु का भजन- चिंतन कहा याद रहेगा | मृत्यु तो अवश्यम्भावी है | हम जो सोचते है कि मुझे कुछ नहीं होगा , मेरी उम्र बड़ी लम्बी है | हम भूल जाते हैं कि अंत काल का समय तो सबका आना है | हो सकता है कोई युवा न हो , यह भी हो सकता है कोई बूढ़ा न हो | पर अंत सबका निश्चित है | फिर यह भी निश्चित नहीं कि पुनर्जन्म मनुष्य के ही रूप में हो | ऐसे में अगर हम जानते बुझते भी अपना भविष्य सुधारने की चेष्टा नहीं करें , तो कौन हमें बुद्धिमान मानेगा |

Thursday 28 July 2011

"फूलो से तुम हँसना सीखो"

"फूलों से तुम हँसना सीखो और भौरों से गाना |
वृक्षों की डाली से सीखो फल आके झुक जाना ||
सूरज की किरणों से सीखो जगना और जगाना |
मेहंदी के पत्तो से सीखो पीसकर रंग चढ़ाना ||
दूध और पानी से सीखो मिलकर प्रेम बढ़ाना |
सुई और धागों से सीखो बिछुड़े हुए मिलाना ||
कोयल से तुम सीखो बच्चो मीठे बचन सुनाना |
मीठे मीठे गीत सुनाकर सबका चित्त लगाना ||
नर तन पाकर के तुम सीखो सुखद समाज बनाना |
दीन  दुखी की सेवा में ही अपना चित्त लगाना ||
झूठ कपट को त्यागो बच्चो शत मार्ग पर चलना |
कहें हितैषी सीखो बच्चों इन पद्यों को गाना ||"

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"पापा! आप एक घंटें में कितना कमाते हैं"

वह महानगर की सिर खपाऊ नौकरी में लगा हुआ था | एक – एक मिनट की कीमत उसके लिए बहुत थी |
उसे तरक्की करनी थी | आगे जाना था | घर – परिवार के लिए सुख – सुविधाएँ जुटानी थी |
 आठ साल का उसका बेटा उससे कोई सवाल कर सके, ऐसे मौके कम ही आते थे |
जब तक वह लौट कर आता, बेटा सो चुका होता था या सोने की तैयारी कर रहा होता था |
पर उस दिन वह जगा हुआ था | दफ्तर से थका – मांदा लौटा पिता कपड़ें चेंज कर रहा था कि बेटा
अचानक पूछ बैठा, पापा ! आपको एक घंटा काम करने के कितने रुपये मिलते है ? सवाल अजीब था |
 वह चिढ गया | इतने छोटे से बच्चे को इससे क्या मतलब है कि उसके पिता को एक घंटे के लिए
 क्यामिलता है ? उसने झिड़क दिया, फालतू बाते नहीं करते, जाओ सो जाओ | बेटा अपने कमरे में चला गया |
 हाथ मुहं धोकर थोड़ा फ्रेश होने पर उसने सोचा, बेकार ही झिड़क दिया | बच्चा है, हो सकता है मन में कोई
 सवाल उठा हो, हो सकता है बड़ा होकर वह उससे भी ज्यादा कमाने का सपना देख रहा हो | हो सकता है उसे अपने
दोस्त के बीच डींग ही हांकनी हो | खाना खाने के बाद वह अपने बेटे के कमरे में गया | अभी वह सोया नहीं था |
कोई कहानी पढ़ रहा था | उसने प्यार से बेटे के सिर पर हाथ फेरा और बोला,”क्यों पूछ रहे थे ?” बच्चों को अपने
 पापा से ऐसी बातें नहीं पूछनी चाहिए | तुम्हे खेलना – कूदना चाहिए मन लगा कर पढ़ना चाहिए | जानना चाहते
 हो तो बता देता हूँ – मुझे एक घंटे के लिए पांच सौ रुपये मिलते हैं | पिता ने यूँ ही एक अच्छी सी रकम बता दी |
बेटा मुस्कराया, पर कोई जबाब नहीं दिया | पिता भी सोने चला गया | बात आई गई हो गई |
कुछ दिनों बाद पिता एक रोज फिर थका- मांदा घर लौटा | बेटा उस दिन भी जागा हुआ था |
पिता  को देखते ही उसने पूछा, पापा ! क्या मैं आपसे कुछ मांग सकता हूँ ? यह आसान था |
दिन भर थकने के बाद घर लौटने पर यदि बच्चे की कोई छोटी – मोटी फरमाइश पूरी कर उसे खुश किया
 जा सके तो अच्छा ही है | उसने तपाक से कहा, हाँ – हाँ बोलो, क्यां चाहिए ? बेटे ने कहा, क्या आप
मुझे तीन सौ रुपये दे सकते है? पिता के लिए यह मांग पूरी करना कोई मुस्किल नहीं था |
फिर भी उसे गुस्सा आया |  जेब खर्च से पूरा नहीं पड़ता क्या ? उसने झुझला कर जबाब दिया |
बिलकुल नहीं | क्या करोगे इतने रूपयों का |अभी पिछले ही महीने मम्मी ने साईकिल दिलवाई है |
पैसे पेड़ पर फलते हैं क्या ? बेटा रुआंसा होकर चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया |
पिता रिलेक्स होने की कोशिश करने लगा | पर मन में हलचल थी | आखिर वह चाहता क्या है |
 क्या करेगा इतने पैसे का ? शायद प्यार से पूछना चाहिए कि क्यों मांग रहा है | खाना खाने के बाद वह
फिर बेटे के कमरे में पंहुचा | बेटा वहां नहीं था | वह उसका बिस्तर ठीक करने लगा | अचानक तकिये
केनीचे दस – दस पांच – पांच के कई नोट नजर आये | उसका माथा ठनका | ये कहाँ से आये ?
बेटा कही चोरी करना तो नहीं सीख गया | उसने जोर से आवाज लगाई | बेटा कमरे में आया |
उसने गुस्से में पूछा, ” ये रुपये कहा से आये ?” और इसके बावजूद तुम मुझसे तीन सौ
रुपये मांग रहे थे ? वह भीतर से उबल रहा था | जब वह बोल चुका तो बेटे ने धीमे से कहा,
 पापा, जेबखर्च से बचा कर दो सौ रुपये जमा कर लिए हैं | अगर तुम मुझे तीन सौ रुपये दे
 देते, तो कुल पांच सौ हो जाते | आपको दफ्तर वाले एक घंटे के इतने ही देते है ना |
तो उसके बदले में आपको पांच सौ रुपये दे देता और आप उस दिन एक घंटे जल्दी घर आ जाते |
 पापा, मैं एक दिन आपके साथ डिनर करना चाहता हूँ | बेटे कि बात सुनकर उसकी आँखों में
 आंसू आ गए |

"आर्थिक लक्ष्य का संधान करते – करते, हम अक्सर उन्हीं रिश्तों को हासिये
पर डाल देते हैं जो हमें सबसे प्रिय होते हैं |"

Tuesday 26 July 2011

” अभाव में जीना सीखें आनंद अपने आप मिलेगा “...

दुनिया सुखो के पीछे दौड़ रही है| हर कोई सब कुछ पाने की होड़ में लगा है| हम खुद भी ऐसे हैं और बच्चों को भी इसी दौड़ में  जुटा दिया है| हर सुख, सारी सुविधा और दुनिया भर का वैभव हर एक की दिली तमन्ना हो गयी है| एक चीज़ का अभाव भी बर्दाशत नहीं है| थोड़ी सी असफलता हमें तोड़ देती है| लेकिन इसके बाद भी जो नहीं मिल पा रहा है वो है आनंद| दरअसल यह आनंद सब कुछ पा लेने में नहीं है| कभी – कभी अभाव में जीना भी आनंद देने लगता है|
अगर आपके अन्दर कोई अभाव है तो उसे सद्गुणों से भरने का प्रयास करें| 
महत्वाकांक्षाओं को हावी न होने दे| मन चाहा मिल जाए इसके लिये तेज़ी से 
दौड़ रही है दुनिया| 
न मिलने का विचार तो लोगो को भीतर तक हिला देता है| 
संतों ने बार – बार कहा है जो है उसका उपयोग करो और जो नहीं है 
उसके बारे में सोच – सोच कर तनाव में मत आओ| 
हम जो नहीं हैं उसे हानि मन कर जो है उसका भी लाभ नहीं उठा पाते हैं| 
संतो के पास यह कला होती है की वह अभाव का भी आनंद उठा लेते हैं| 
हमारे लिये दो उदहारण काफी हैं| श्री राम वनवास में पूरी 
तरह से अभाव में थे| जिनका कल राजतिलक होने वाला था 
उन्हें चौदह वर्ष वनवास जाना पड़ा| इधर रावण के पास ऐसी 
सत्ता थी जिसे देख देवता भी नतमस्तक थे| एक के पास सब
 कुछ था फिर भी वहा हार गया और दुसरे ने पूर्ण अभाव में
 भी दुनिया जीत ली| अभाव हमें संघर्ष के लिये प्रेरित करे कुछ
 पाने के लिये प्रोत्साहित करे यहाँ तक तो ठीक है परन्तु हम
 अभाव में बैचेन हो जाते हैं और परेशान, तनावग्रस्त मन लेकर
 कुछ पाने के लिये दौड़ पड़ते हैं| तब क्रोध, हिंसा, भ्रष्ट आचरण 
हमारे भीतर कब उतर जाते हैं पता ही नहीं चल पाता है| 
इसे एक और दृष्टि से देख सकते हैं| रावन में भक्ति का 
अभाव था, बाकी सब कुछ था उसके पास| कई लोगो के साथ
 ऐसा होता है| आदमी अपने अन्दर के अभाव को भरने की 
कोशिश भी करता है| रावन ने भक्ति के अभाव को अपने
 अहंकार से भरा था, आज भी कई लोग अपनी 
महत्वकांक्षी विकृतियों, दुर्गणों से भरने लगते हैं| 
जिन्हें भक्ति करना हो वें समझ ले पहली बात
 अभाव का आनंद उठाना सीखें और अभाव को 
भरने के लिये लक्ष्य, उद्देश्य पवित्र रखें|

अपना अपना स्वभाव...

   ए बार एक भला आदमी नदी किनारे बैठा था। तभी उसने देखा एक बिच्छू पानी में गिर गया है। भले आदमी ने जल्दी से बिच्छू को हाथ में उठा लिया। बिच्छू ने उस भले आदमी को डंक मार दिया। बेचारे भले आदमी का हाथ काँपा और बिच्छू पानी में गिर गया।
भले आदमी ने बिच्छू को डूबने से बचाने के लिए दुबारा उठा लिया। बिच्छू ने दुबारा उस भले आदमी को डंक मार दिया। भले आदमी का हाथ दुबारा काँपा और बिच्छू पानी में गिर गया।
भले आदमी ने बिच्छू को डूबने से बचाने के लिए एक बार फिर उठा लिया। वहाँ एक लड़का उस आदमी का बार-बार बिच्छू को पानी से निकालना और बार-बार बिच्छू का डंक मारना देख रहा था। उसने आदमी से कहा, "आपको यह बिच्छू बार-बार डंक मार रहा है फिर भी आप उसे डूबने से क्यों बचाना चाहते हैं?"
भले आदमी ने कहा, "बात यह है बेटा कि बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना और मेरा स्वभाव है बचाना। जब बिच्छू एक कीड़ा होते हुए भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव क्यों छोड़ूँ?"

मनुष्य को कभी भी अपना अच्छा स्वभाव नहीं भूलना चाहिए।

रास्ते की रुकावट...

     विद्यार्थियों की एक टोली पढ़ने के लिए रोज़ाना अपने गाँव से 6-7 मील दूर दूसरे गाँव जाती थी। एक दिन जाते-जाते अचानक विद्यार्थियों को लगा कि उन में एक विद्यार्थी कम है। ढूँढने पर पता चला कि वह पीछे रह गया है। 
उसे एक विद्यार्थी ने पुकारा, "तुम वहाँ क्या कर रहे हो?" 
उस विद्यार्थी ने वहीं से उत्तर दिया, "ठहरो, मैं अभी आता हूँ।"
यह कह कर उस ने धरती में गड़े एक खूँटे को पकड़ा। ज़ोर से हिलाया, उखाड़ा और एक ओर फेंक दिया फिर टोली में आ मिला।
उसके एक साथी ने पूछा, "तुम ने वह खूँटा क्यों उखाड़ा? इसे तो किसी ने खेत की हद जताने के लिए गाड़ा था।"
इस पर विद्यार्थी बोला, "लेकिन वह बीच रास्ते में गड़ा हुआ था। चलने में रुकावट डालता था। जो खूँटा रास्ते की रुकावट बने, उस खूँटे को उखाड़ फेंकना चाहिए।"
वह विद्यार्थी और कोई नहीं, बल्कि लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।

धैर्य की पराकाष्ठा ...

         बाल गंगाधर तिलक भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी थे पर साथ ही साथ वे अद्वितीय कीर्तनकार, तत्वचिंतक, गणितज्ञ, धर्म प्रवर्तक और दार्शनिक भी थे। हिंदुस्तान में राजकीय असंतोष मचाने वाले इस करारी और निग्रही महापुरुष को अंग्रेज़ सरकार ने मंडाले के कारागृह में 6 साल के लिए भेज दिया।
यहीं से उनके तत्व चिंतन का प्रारंभ हुआ। दुख और यातना सहते-सहते शरीर को व्याधियों ने घेर लिया था। ऐसे में ही उन्हें अपने पत्नी के मृत्यु की ख़बर मिली। उन्होंने अपने घर एक खत लिखा -
"आपका तार मिला। मन को धक्का तो ज़रूर लगा है। हमेशा आए हुए संकटों का सामना मैंने धैर्य के साथ किया है। लेकिन इस ख़बर से मैं थोड़ा उदास ज़रूर
हो गया हूँ। हम हिंदू लोग मानते हैं कि पति से पहले पत्नी को मृत्यु आती है तो वह भाग्यवान है, उसके साथ भी ऐसे ही हुआ है। उसकी मृत्यु के समय मैं वहाँ उसके क़रीब नहीं था इसका मुझे बहुत अफ़सोस है। होनी को कौन टाल सकता है? परंतु मैं अपने दुख भरे विचार सुनाकर आप सबको और दुखी करना नहीं चाहता। मेरी ग़ैरमौजूदगी में बच्चों को ज़्यादा दुख होना स्वाभाविक है।
उन्हें मेरा संदेशा पहुँचा दीजिए कि जो होना था वह हो चुका है। इस दुख से अपनी और किसी तरह की हानि न होने दें, पढ़ने में ध्यान दें, विद्या ग्रहण करने में कोई कसर ना छोड़ें। मेरे माता पिता के देहांत के समय मैं उनसे भी कम उम्र का था। संकटों की वजह से ही स्वावलंबन सीखने में सहायता मिलती है। दुख करने में समय का दुरुपयोग होता है। जो हुआ है उस परिस्थिति का धीरज का सामना करें।"

अत्यंत कष्ट के समय पर भी पत्नी के निधन का समाचार एक कठिन परीक्षा के समान था। किंतु बाल गंगाधर तिलक ने अपना धीरज न खोते हुए परिवार वालों को धैर्य बँधाया व इस परीक्षा को सफलता से पार किया।
जीवन भर उन्होंने कर्मयोग का चिंतन किया था वो ऐसे ही तो नहीं! 'गीता' जैसे तात्विक और अलौकिक ग्रंथ पर आधारित 'गीता रहस्य' उन्होंने इसी मंडाले के कारागृह में लिखा था।

Thursday 21 July 2011

भ्रष्टाचार ...चीन में सजा... भारत में मज़ा...


चीन  में  गत   मंगलवार को दो भ्रष्ट राजनेताओं को फाँसी  पर चढ़ा दिया गया - ये थे पूर्व मेयर जो रिश्वत लेने, हेराफेरी और पद के दुर्रपयोग के दोषी पाए गए. १२ मई को मृत्यु दंड की सजा सुनाई गई और महज़ २ महीने नौं दिन के बाद लटका दिया गया.  भ्रष्टाचार के प्रति अपनी ' जीरो   टालरेंस ' निति की बदौलत आज चीन विकास स्तर में भारत से मीलों आगे निकल गया है. ऐसी अनेकों उदाहरण चीन में देखने को मिलती हैं जब भ्रष्टाचार में लिप्त राजनेताओं, कर्मचारियों व् अन्य नागरिकों को सूली पर लटका दिया गया. 
हमारे यहाँ   ऐसी एक भी उदहारण ' ढूँढते रह जाओगे ' सूली तो क्या किसी को मामूली सजा भी हुई हो. आज हम  विश्व   के भ्रष्ट देशों के सिरमौर बन कर उभरे हैं और शीर्ष स्थान तक पहुँचाने  के लिए   चंद  पायदान  की दरकार   है. भ्रष्टाचार के कीर्तिमान   बनाने  में हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री महा पंडित  श्री श्री जवाहर लाल जी नेहरु का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. पंडित जी द्वारा रोपे और सिंचित  किये गए भ्रष्टाचार के  बूटे  आज वट वृक्ष बन उभरे  हैं .पंडित जी के कार्यकाल में पहला घोटाला जीप     घोटाला था जिसे    उनके चहेते कृष्णा मेनन ने सरअंजाम   दिया था.  
आजाद भारत का यह पहला घोटाला था और वह  भी देश की सुरक्षा  से सम्बंधित !   नाम - मात्र के विरोधी  सांसदों   ने यह मामला  जोर शोर से संसद में उठाया... नेहरु जी  बुरा    मान     गए - कृष्णा   मेनन नेहरु जी  के ख़ास राजदार जो ठहरे  ? मेनन को सजा तो क्या ! इनाम सवरूप रक्षा मंत्री बना दिया ! नतीजा  ६२ के युद्ध  में हम चीन के हाथों  पराजित  हुए और हजारों मील अपनी  भूमि से हाथ धो बैठे. नेहरु जी सदमे से उबर न सके और अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए. 
दूसरा भ्रष्टाचार भी  नेहरु जी की ही  देन  था जब पंजाब  के वृष्ट  नागरिक  व् राजनेता  नेहरु जी   से मिले   और ततकालीन    मुख्यमंत्री  परताप सिंह कैरो की लूट  खसूट  की  शिकायत की. नेहरु जी ने कैरो के खिलाफ कार्रवाही तो क्या करनी थी उल्टा 'जुमला' दे  मारा   ' अरे  भई   कैरो यह लूट  का पैसा कोई बाहर तो नहीं  ले गया - देश में ही लगा रहा है. भ्रष्टाचार के प्रति 'सब चलता है' की इस  नीति के चलते और नेहरु जी की नादानी के परिणाम स्वरुप   आज , स्विस  बैंकों  में भ्रष्टाचार से लूटा गया - भारत का   काला धन १५०० बिलियन  डालर को पार कर गया है. 
बाबा राम देव जी ने जब भारत के विदेशी बैंकों में पड़े पैसे को राष्ट्रिय  सम्पति घोषित करने और काला धन विदेशी बैंको में जमा करवाने वालों के खिलाफ मृत्यु दंड की मांग में राम लीला मैदान में लाखों समर्थकों के साथ अहिंसक व् शांतमयी     धरना   दिया तो हमारी सेकुलर शैतानों की सर्कार ने आन्दोलनकारियों    को पीट   पीट कर भगाया और भगा भगा कर पीटा. जाहिर है सरकार में बैठे राजनेता नहीं चाहते  कि लोग स्विस बैंको में पड़े पैसे पर हो हल्ला करे क्योंकि अधिकाँश पैसा पिछले ६४ साल से सत्ता सुख भोग रहे राजनेताओं और उनके कुनबे का है. उल्टा आन्दोलनकारी समाजसेवकों को झूठे मामलों में प्रताड़ित करने का खेल खेला जा रहा है. मिडिया को इन समाजसेवकों के खिलाफ प्रचार के लिए करोड़ों रूपए की 'विज्ञापन  सुपारी' दी जा रही है. ताकि आम लोगो में भ्रम फैलाया जाए. एक सर्वे के अनुसार देश की ५४ % जनता भ्रष्टाचार के प्रति संवेदनहीन है. एक ही परिवार और पार्टी की सरकार की पिछले ६४ साल में देश 
को भ्रष्टाचार के गर्त में धकेलने कि यह सबसे बड़ी साजिश है. 
तोहमतें आयेंगी नादिरशाह पर - आप दिल्ली रोज़ ही लूटा करो .
नेहरु का बोया भ्रष्ट बीज  आज मनमोहन के सर पर वट वृक्ष बना इतरा रहा है - महज़ ६८ करोड़ के बोफोर्स घोटाले पर केंद्र की सरकार औंधे मूंह गिरी थी .. आज १.७६ लाख करोड़ के २जी घोटाले पर देश में शमशान सी ख़ामोशी है. क्योंकि ऐसे महां घोटाले तो  अब  रोज़ रोज़ उजागर हो रहे हैं.  चोरों का सरदार सिंह फिर भी ईमानदार है ? न्यायालयों की सक्रियता के चलते अनेक मंत्री और संत्री तिहार जेल में बंद हैं. सिलसिला अगर यूँ ही जारी रहा तो एक दिन मंत्री मंडल की बैठक भी तिहार जेल में होगी और हमारे चोरों के सरदार और फिर भी ईमानदार प्रधानमंत्री को भी     ' ति...    हा ...   र ...  '       तो जाना ही पड़े.... गा ..........??????????

-"Ashu"

Wednesday 20 July 2011

आइये एक सच्ची कहानी बताता हूँ....


             पनी पुस्तक "द नेहरू डायनेस्टी" में लेखक के.एन.राव (यहाँ उपलब्ध है) लिखते हैं....ऐसा माना जाता है कि जवाहरलाल, मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर । यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल की एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू । कमला नेहरू उनकी माता का नाम था, जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी । कमला शुरु से ही इन्दिरा के फ़िरोज से विवाह के खिलाफ़ थीं... क्यों ? यह हमें नहीं बताया जाता...लेकिन यह फ़िरोज गाँधी कौन थे ? फ़िरोज उस व्यापारी के बेटे थे, जो "आनन्द भवन" में घरेलू सामान और शराब पहुँचाने का काम करता था...नाम... बताता हूँ.... पहले आनन्द भवन के बारे में थोडा सा... आनन्द भवन का असली नाम था "इशरत मंजिल" और उसके मालिक थे मुबारक अली... मोतीलाल नेहरू पहले इन्हीं मुबारक अली के यहाँ काम करते थे...खैर...हममें से सभी जानते हैं कि राजीव गाँधी के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के नाना के साथ ही दादा भी तो होते हैं... और अधिकतर परिवारों में दादा और पिता का नाम ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, बजाय नाना या मामा के... तो फ़िर राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या था.... किसी को मालूम है ? नहीं ना... ऐसा इसलिये है, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब खान, एक मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाय करता था और जिसका मूल निवास था जूनागढ गुजरात में... नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया... फ़िरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था "घांदी" (गाँधी नहीं)... घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था...विवाह से पहले फ़िरोज गाँधी ना होकर फ़िरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था...हमें बताया जाता है कि राजीव गाँधी पहले पारसी थे... यह मात्र एक भ्रम पैदा किया गया है । इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार थीं । शांति निकेतन में पढते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहार के लिये निकाल बाहर किया था... अब आप खुद ही सोचिये... एक तन्हा जवान लडकी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पडी़ हुई हों... थोडी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी, और विपरीत लिंग की ओर क्यों ना आकर्षित होगी ? इसी बात का फ़ायदा फ़िरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फ़ुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली (नाम रखा "मैमूना बेगम")

         नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए, लेकिन अब क्या किया जा सकता था...जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो उन्होंने ताबडतोड नेहरू को बुलाकर समझाया, राजनैतिक छवि की खातिर फ़िरोज को मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले.. यह एक आसान काम था कि एक शपथ पत्र के जरिये, बजाय धर्म बदलने के सिर्फ़ नाम बदला जाये... तो फ़िरोज खान (घांदी) बन गये फ़िरोज गाँधी । और विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक कहीं नहीं किया, और वे महात्मा भी कहलाये...खैर... उन दोनों (फ़िरोज और इन्दिरा) को भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुनः वैदिक रीति से उनका विवाह करवाया गया, ताकि उनके खानदान की ऊँची नाक (?) का भ्रम बना रहे । इस बारे में नेहरू के सेक्रेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक "रेमेनिसेन्सेस ऑफ़ थे नेहरू एज" (पृष्ट ९४ पैरा २) (अब भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित) में लिखते हैं कि "पता नहीं क्यों नेहरू ने सन १९४२ में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी, जबकि उस समय यह अवैधानिक था, कानूनी रूप से उसे "सिविल मैरिज" होना चाहिये था" । यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद इन्दिरा और फ़िरोज अलग हो गये थे, हालाँकि तलाक नहीं हुआ था । फ़िरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान किया करते थे, और नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे । तंग आकर नेहरू ने फ़िरोज का "तीन मूर्ति भवन" मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । मथाई लिखते हैं फ़िरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बडी़ राहत मिली थी । १९६० में फ़िरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी, जबकि वह दूसरी शादी रचाने की योजना बना चुके थे । अपुष्ट सूत्रों, कुछ खोजी पत्रकारों और इन्दिरा गाँधी के फ़िरोज से अलगाव के कारण यह तथ्य भी स्थापित हुआ कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी (या श्रीमती फ़िरोज खान) का दूसरा बेटा अर्थात संजय गाँधी, फ़िरोज की सन्तान नहीं था, संजय गाँधी एक और मुस्लिम मोहम्मद यूनुस का बेटा था । संजय गाँधी का असली नाम दरअसल संजीव गाँधी था, अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता । लेकिन संजय नाम रखने की नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था । ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवाया था (इन्हीं कृष्ण मेनन साहब को भ्रष्टाचार के एक मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था) । अब संयोग पर संयोग देखिये... संजय गाँधी का विवाह "मेनका आनन्द" से हुआ... कहाँ... मोहम्मद यूनुस के घर पर (है ना आश्चर्य की बात)... मोहम्मद यूनुस की पुस्तक "पर्सन्स, पैशन्स एण्ड पोलिटिक्स" में बालक संजय का इस्लामी रीतिरिवाजों के मुताबिक खतना बताया गया है, हालांकि उसे "फ़िमोसिस" नामक बीमारी के कारण किया गया कृत्य बताया गया है, ताकि हम लोग (आम जनता) गाफ़िल रहें.... मेनका जो कि एक सिख लडकी थी, संजय की रंगरेलियों की वजह से गर्भवती हो गईं थीं और फ़िर मेनका के पिता कर्नल आनन्द ने संजय को जान से मारने की धमकी दी थी, फ़िर उनकी शादी हुई और मेनका का नाम बदलकर "मानेका" किया गया, क्योंकि इन्दिरा गाँधी को "मेनका" नाम पसन्द नहीं था (यह इन्द्रसभा की नृत्यांगना टाईप का नाम लगता था), पसन्द तो मेनका, मोहम्मद यूनुस को भी नहीं थी क्योंकि उन्होंने एक मुस्लिम लडकी संजय के लिये देख रखी थी
 
 
       फ़िर भी मेनका कोई साधारण लडकी नहीं थीं, क्योंकि उस जमाने में उन्होंने बॉम्बे डाईंग के लिये सिर्फ़ एक तौलिये में विज्ञापन किया था । आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संजय गाँधी अपनी माँ को ब्लैकमेल करते थे और जिसके कारण उनके सभी बुरे कृत्यों पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला और उसे अपनी मनमानी करने की छूट दी । ऐसा प्रतीत होता है कि शायद संजय गाँधी को उसके असली पिता का नाम मालूम हो गया था और यही इन्दिरा की कमजोर नस थी, वरना क्या कारण था कि संजय के विशेष नसबन्दी अभियान (जिसका मुसलमानों ने भारी विरोध किया था) के दौरान उन्होंने चुप्पी साधे रखी, और संजय की मौत के तत्काल बाद काफ़ी समय तक वे एक चाभियों का गुच्छा खोजती रहीं थी, जबकि मोहम्मद यूनुस संजय की लाश पर दहाडें मार कर रोने वाले एकमात्र बाहरी व्यक्ति थे...। (संजय गाँधी के तीन अन्य मित्र कमलनाथ, अकबर अहमद डम्पी और विद्याचरण शुक्ल, ये चारों उन दिनों "चाण्डाल चौकडी" कहलाते थे... इनकी रंगरेलियों के किस्से तो बहुत मशहूर हो चुके हैं जैसे कि अंबिका सोनी और रुखसाना सुलताना [अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ] के साथ इन लोगों की विशेष नजदीकियाँ....)एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ २०६ पर लिखते हैं - "१९४८ में वाराणसी से एक सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक नाम श्रद्धा माता था । वह संस्कृत की विद्वान थी और कई सांसद उसके व्याख्यान सुनने को बेताब रहते थे । वह भारतीय पुरालेखों और सनातन संस्कृति की अच्छी जानकार थी । नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी.उपाध्याय ने एक हिन्दी का पत्र नेहरू को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को एक इंटरव्यू देने को राजी हुए । चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत था, नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के समय ही दिये । मथाई के शब्दों में - एक रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा, वह बहुत ही जवान, खूबसूरत और दिलकश थी - । एक बार नेहरू के लखनऊ दौरे के समय श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक पत्र लेकर नेहरू के पास आये, नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया, और अचानक एक दिन श्रद्धा माता गायब हो गईं, किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं । नवम्बर १९४९ में बेंगलूर के एक कॉन्वेंट से एक सुदर्शन सा आदमी पत्रों का एक बंडल लेकर आया । उसने कहा कि उत्तर भारत से एक युवती उस कॉन्वेंट में कुछ महीने पहले आई थी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया । उस युवती ने अपना नाम पता नहीं बताया और बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को वहाँ छोडकर गायब हो गई थी । उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ पत्र बरामद हुए जो प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं, पत्रों का वह बंडल उस आदमी ने अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया ।
 
 
 
 
               मथाई लिखते हैं - मैने उस बच्चे और उसकी माँ की खोजबीन की काफ़ी कोशिश की, लेकिन कॉन्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस, जो कि एक विदेशी महिला थी, बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक शब्द भी किसी से नहीं कहा.....लेकिन मेरी इच्छा थी कि उस बच्चे का पालन-पोषण मैं करुँ और उसे रोमन कैथोलिक संस्कारों में बडा करूँ, चाहे उसे अपने पिता का नाम कभी भी मालूम ना हो.... लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था.... खैर... हम बात कर रहे थे राजीव गाँधी की...जैसा कि हमें मालूम है राजीव गाँधी ने, तूरिन (इटली) की महिला सानिया माईनो से विवाह करने के लिये अपना तथाकथित पारसी धर्म छोडकर कैथोलिक ईसाई धर्म अपना लिया था । राजीव गाँधी बन गये थे रोबेर्तो और उनके दो बच्चे हुए जिसमें से लडकी का नाम था "बियेन्का" और लडके का "रॉल" । बडी ही चालाकी से भारतीय जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिये राजीव-सोनिया का हिन्दू रीतिरिवाजों से पुनर्विवाह करवाया गया और बच्चों का नाम "बियेन्का" से बदलकर प्रियंका और "रॉल" से बदलकर राहुल कर दिया गया... बेचारी भोली-भाली आम जनता !

प्रधानमन्त्री बनने के बाद राजीव गाँधी ने लन्दन की एक प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में अपने-आप को पारसी की सन्तान बताया था, जबकि पारसियों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं था, क्योंकि वे तो एक मुस्लिम की सन्तान थे जिसने नाम बदलकर पारसी उपनाम रख लिया था । हमें बताया गया है कि राजीव गाँधी केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के स्नातक थे, यह अर्धसत्य है... ये तो सच है कि राजीव केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे, लेकिन उन्हें वहाँ से बिना किसी डिग्री के निकलना पडा था, क्योंकि वे लगातार तीन साल फ़ेल हो गये थे... लगभग यही हाल सानिया माईनो का था...हमें यही बताया गया है कि वे भी केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की स्नातक हैं... जबकि सच्चाई यह है कि सोनिया स्नातक हैं ही नहीं, वे केम्ब्रिज में पढने जरूर गईं थीं लेकिन केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में नहीं । सोनिया गाँधी केम्ब्रिज में अंग्रेजी सीखने का एक कोर्स करने गई थी, ना कि विश्वविद्यालय में (यह बात हाल ही में लोकसभा सचिवालय द्वारा माँगी गई जानकारी के तहत खुद सोनिया गाँधी ने मुहैया कराई है, उन्होंने बडे ही मासूम अन्दाज में कहा कि उन्होंने कब यह दावा किया था कि वे केम्ब्रिज की स्नातक हैं, अर्थात उनके चमचों ने यह बेपर की उडाई थी)। क्रूरता की हद तो यह थी कि राजीव का अन्तिम संस्कार हिन्दू रीतिरिवाजों के तहत किया गया, ना ही पारसी तरीके से ना ही मुस्लिम तरीके से । इसी नेहरू खानदान की भारत की जनता पूजा करती है, एक इटालियन महिला जिसकी एकमात्र योग्यता यह है कि वह इस खानदान की बहू है आज देश की सबसे बडी पार्टी की कर्ताधर्ता है और "रॉल" को भारत का भविष्य बताया जा रहा है । मेनका गाँधी को विपक्षी पार्टियों द्वारा हाथोंहाथ इसीलिये लिया था कि वे नेहरू खानदान की बहू हैं, इसलिये नहीं कि वे कोई समाजसेवी या प्राणियों पर दया रखने वाली हैं....और यदि कोई सानिया माइनो की तुलना मदर टेरेसा या एनीबेसेण्ट से करता है तो उसकी बुद्धि पर तरस खाया जा सकता है और हिन्दुस्तान की बदकिस्मती पर सिर धुनना ही होगा...
 
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सौजन्य:-
"आशु"

Tuesday 19 July 2011

खोया हुआ मोती... (भाग-१)

                मेरी नौका ने स्नान-घाट की टूटी-फूटी सीढ़ियों के समीप लंगर डाला। सूर्यास्त हो चुका था। नाविक नौका के तख्ते पर ही मगरिब (सूर्यास्त) की नमाज अदा करने लगा। प्रत्येक सजदे के पश्चात् उसकी काली छाया सिंदूरी आकाश के नीचे एक चमक के समान खिंच जाती।
नदी के किनारे एक जीर्ण-शीर्ण इमारत खड़ी थी, जिसका छज्जा इस प्रकार झुका हुआ था कि उसके गिर पड़ने की हर घड़ी भारी शंका रहती थी। उसके द्वारों और खिड़कियों के किवाड़ बहुत पुराने और ढीले हो चुके थे। चहुं ओर शून्यता छाई हुई थी। उस शून्य वातावरण में सहसा एक मनुष्य की आवाज मेरे कानों में सुनाई पड़ी और मैं कांप उठा।
''आप कहां से आ रहे हैं?''
मैंने गर्दन घुमाकर देखा तो एक पीले, लम्बे और वृध्द मनुष्य की शक्ल दिखाई पड़ी जिसकी हड्डि‍यां निकली हुई थीं, दुर्भाग्य के लक्षण सिर से पैर तक प्रकट हो रहे थे। वह मुझसे दो-चार सीढ़ियां ऊपर खड़ा था। सिल्क का मैला कोट और उसके नीचे एक मैली-सी धोती बांधे हुए। उसका निर्बल शरीर, उतरा हुआ मुख और लड़खड़ाते हुए कदम बता रहे थे कि उस क्षुधा-पीड़ित मनुष्य को शुध्द वायु से अधिक भोजन की आवश्यकता है।
''मैं रांची से आ रहा हूं।'
यह सुनकर वह मेरे बराबर उसी सीढ़ी पर आ बैठा।
''और आपका काम?''
''व्यापार करता हूं।''
''काहे का?''
''इमारती लकड़ी, रेशम और त्रिफला का।''
''आपका नाम क्या है?''
एक क्षण सोने के बाद मैंने उसे अपना एक बनावटी नाम बता दिया। किन्तु वह अब मुझे एक-टक देख रहा था।
'परन्तु आपका यहां आना कैसे हुआ? केवल मनोरंजन के लिए या वायु-परिवर्तन के लिए?''
मैंने कहा-''वायु-परिवर्तन के लिए।'
''यह भी खूब कही। मैं लगभग छ: वर्ष से प्रतिदिन यहां की ताजी वायु पेट भरकर खा रहा हूं और साथ ही पन्द्रह ग्रेन कुनैन भी; परन्तु अन्तर कुछ नहीं हुआ। कोई लाभ दिखाई नहीं देता।''
''किन्तु रांची और यहां के जलवायु में तो पृथ्वी और आकाश का अन्तर है।''
''इसमें सन्देह नहीं, किन्तु आप यहां ठहरे किस स्थान पर हैं? क्या इसी मकान में?''
सम्भवत: उस व्यक्ति को संदेह हो गया था कि मुझे उसके किसी गड़े हुए धन का कहीं से सुराग मिल गया है और मैं उस स्थान पर ठहरने के लिए नहीं; बल्कि उसके गड़े हुए धन पर अपना अधिकार जमाने आया हूं। मकान की भलाई-बुराई के सम्बन्ध में एक शब्द तक कहे बिना उसने अपने उस मकान के स्वामी की पन्द्रह साल पूर्व की एक कथा सुनानी आरम्भ कर दी-
''उसकी गंजी खोपड़ी में गहरी और चमकदार काली आंखें मुझे कॉलरिज के पुराने नाविक का स्मरण करा रही थीं। वह एक स्थानीय स्कूल में अध्यापक था।
''नाविक ने समाज से निवृत्त होकर रोटी बनानी आरम्भ कर दी। सूर्यास्त होने के समय आकाश के सिंदूरी रंग पर अधिकार जमाने वाली अंधेरी में वह खण्डहर- भवन एक विचित्र-सा भयावह दृश्य प्रदर्शित कर रहा था।
''मेरे पास सीढ़ी पर बैठे हुए उस दुबले और लम्बे स्कूल मास्टर ने कहा- ''मेरे इस गांव में आने से लगभग दस साल पूर्व एक व्यक्ति फणीभूषण सहाय इस मकान में रहता था। उसका चाचा दुर्गामोहन बिना अपने किसी उत्तराधिकारी के मर गया। जिसकी सम्पूर्ण संपत्ति और विस्तृत व्यापार का अकेला वही अधिकारी था।
''पाश्चात्य शिक्षा और नई सभ्यता का भूत फणीभूषण पर सवार था। कॉलेज में कई वर्षों तक शिक्षा प्राप्त कर चुका था। वह अंग्रेजों की भांति कोठी में जूता पहने फिरा करता था, यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ये लोग उनके साथ कोई व्यापारिक रियायत देने के रवादार न थे। वे भली-भांति जानते थे कि फणीभूषण आखिर को नये बंगाल की वायु में सांस ले रहा है।
''इसके अतिरिक्त एक और बला उसके सिर पर सवार थी। अर्थात् उसकी पत्नी परम सुन्दरी थी। यह सुन्दर बला और पाश्चात्य शिक्षा दोनों उसके पीछे ऐसी पड़ी थीं कि तोबा भली! खर्च सीमा से बाहर। तनिक शरीर गर्म हुआ और झट सरकारी डॉक्टर खट-खट करते आ पहुंचे।
''विवाह सम्भवत: आपका भी हो चुका है। आपको भी वास्तव में यह अनुभव हो गया है कि स्त्री कठोर स्वभाव वाले पति को सर्वदा पसन्द करती है। वह अभागा व्यक्ति जो अपनी पत्नी के प्रेम से वंचित हो, यह न समझ बैठे कि वह इस संपत्ति से माला-माल नहीं या सौन्दर्य से वंचित है। विश्वास कीजिये वह अपनी सीमा से अधिक कोमल प्रकृति और प्रेम के कारण इसी दुर्भाग्य में फंसा हुआ है। मैंने इस विषय में खूब सोचा है और इस तथ्य पर पहुंचा हूं और यह है भी ठीक। पूछिये क्यों? लीजिये इस प्रश्न का संक्षिप्त और विस्तृत उत्तर इस प्रकार है।
''यह तो आप अवश्य मानेंगे कि कोई भी व्यक्ति उस समय तक वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक कि उसे अपने जन्मजात विचार और स्वाभाविक योग्यताओं के प्रकट करने के लिए एक विस्तृत क्षेत्र प्राप्त न हो। हरिण को आपने देखा है वह अपने सींगों को वृक्ष से रगड़कर आनन्द प्राप्त करता है, नर्म और नाजुक केले के खम्भे से नहीं। सृष्टि के आरम्भ से ही नारी-जाति इस जंगली और कठोर-स्वभाव पुरुष को जीतने के लिए विशेष ढंग सीखती चली आ रही है। यदि उसे पहले ही से आज्ञाकारी पति मिल जाये तो उसके वे आकर्षक हथकंडे जो उसको मां और दादियों से बपौती रूप में मिले हैं, और लम्बे समय से निरन्तर चलते रहने के कारण सीमा से अधिक सत्य भी सिध्द हुए हैं, न केवल बेकार रह जाते हैं बल्कि स्त्री को भार-स्वरूप मालूम होने लगते हैं।
''स्त्री अपने आकर्षक सौन्दर्य के बल पर पुरुष का प्रेम और उसकी आज्ञाकारिता प्राप्त करना चाहती है। किन्तु जो पति स्वयं ही उनके सौन्दर्य के सामने झुक जाये, वह वास्तव में दुर्भाग्यशाली होता है, और उससे अधिक उसकी पत्नी।
''वर्तमान सभ्यता ने ईश्वर-प्रदत्त उपहार अर्थात् ''पुरुष की सुन्दर कठोरता' उससे छीन ली है। पुरुष ने अपनी निर्बलता से स्त्री के दाम्पत्य-बन्धन को बड़ी सीमा तक ढीला कर दिया है। मेरी इस कहानी का अभागा फणीभूषण भी इस नवीन सभ्यता की छलना से छला हुआ था और यही कारण था कि न वह अपने व्यापार में सफल था और न गृहस्थ जीवन से सन्तुष्ट। यदि एक ओर वह अपने व्यापार में लाभ से बेखबर था तो दूसरी ओर अपनी पत्नी के पतित्व-अधिकार से वंचित।
''फणीभूषण की पत्नी मनीमलिका को प्रेम और विलास-सामग्री बेमांगे मिली थी। उसे सुन्दर और बहुमूल्य साड़ियों के लिए अनुनय-विनय तो क्या पति से कहने की आवश्यकता न होती थी। सोने के आभूषणों के लिए उसे झुकना न पड़ता था। इसलिए उसके स्त्रियोचित स्वभाव को आज्ञा देने वाले स्वर का जीवन में कभी आभास न हुआ था, यही कारण था कि वह अपनी प्रेममयी भावनाओं में आवेश की स्थिति उत्पन्न न कर पाती थी। उसके कान-''लो स्वीकार करो' के मधुर शब्दों से परिचित थे; किन्तु उसके होंठ 'लाओ' और 'दो' से सर्वथा अपरिचित। उसके सीधे स्वभाव का पति इस मिथ्या-भावना की कहावत से प्रसन्न था कि 'कर्म किये जाओ फल की कामना मत करो, तुम्हारा परिश्रम कभी अकारथ नहीं जाएगा'। वह इसी मिथ्या भावना के पीछे हाथ-पैर मारे जा रहा था। परिणाम यह हुआ कि उसकी पत्नी उसे ऐसी मशीन समझने लगी जो बिना चलाए चलती है। स्वयं ही बिना कुछ कष्ट किये सुन्दर साड़ियां और बहुमूल्य आभूषण बनाकर उसके कदमों पर डालती रहती। उसके पुर्जे इतने शक्तिशाली और टिकाऊ थे कि कभी भी उसको तेल देने की आवश्यकता न होती।
''फणीभूषण की जन्मभूमि और रहने का स्थान समीप ही एक देहात का गांव था, किन्तु उसके चाचा के व्यापार का मुख्य स्थान यही शहर था। इसी कारण उसकी आयु का अधिक भाग यहीं व्यतीत हुआ था। वैसे मां मर चुकी थी; किन्तु मौसी और मामियां आदि ईश्वर की कृपा से विद्यमान थीं। परन्तु वह विवाह के बाद ही फौरन मनीमलिका को अपने साथ ले आया। उसने विवाह अपने सुख के लिए किया था न कि अपने सम्बन्धियों की सेवा के लिए।
''पत्नी और उसके अधिकारों में पृथ्वी-आकाश का अन्तर है। पत्नी को प्राप्त कर लेना और फिर उसकी देख-भाल करना, उसको अपना बनाने के लिए काफी नहीं हुआ करता।
''मनीमलिका सोसायटी की अधिक भक्त न थी। इसलिए व्यर्थ का खर्च भी न करती थी, बल्कि इसके प्रतिकूल बड़ी सावधानी रखने वाली थी। जो उपहार फणीभूषण उसको एक बार ला देता फिर क्या मजाल कि उसको हवा भी लग जाए। वह सावधानी से सब रख दिया जाता। कभी ऐसा नहीं देखा गया कि किसी पड़ोसिन को उसने भोजन पर बुलाया हो। वह उपहार या भेंट लेने-देने के पक्ष में भी न थी।
''सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि चौबीस साल की आयु में भी मनीमलिका चौदह वर्ष की सुन्दर युवती दिखाई देती थी। ऐसा प्रतीत होता मानो उसका रूप-लावण्य केवल स्थायी ही नहीं, बल्कि चिरस्थायी रहने वाला है। मनीमलिका के पार्श्व में हृदय न था बर्फ का टुकड़ा था, जिस पर प्रेम की तनिक भी तपन न पहुंची थी। फिर वह पिघलता क्यों और उसका यौवन ढलता किस प्रकार?
''जो वृक्ष पत्तों से लदा होता है प्राय: फल से वंचित रहता है। मनीमलिका का सौन्दर्य भी फलहीन था। वह संतानहीन थी। रख-रखाव और व्यक्तिगत देख-रेख करती भी तो काहे की? उसका सारा ध्यान अपने आभूषणों पर ही केन्द्रित था। संतान होती तो वसन्त की मीठी-मीठी धूप की भांति उसके बर्फ के हृदय को पिघलाती और वह निर्मल जल उसके दाम्पत्य-जीवन के मुरझाए हुए वृक्ष को हरा कर देता।
''मनीमलिका गृहस्थ के काम-काज और परिश्रम से भी न कतराती थी। जो काम वह स्वयं कर सकती उसका पारिश्रमिक देना उसे खलता था। दूसरों के कष्ट का न उसे ध्यान था और न नाते-रिश्तेदारों की चिन्ता। उसको अपने काम से काम था। इस शांत जीवन के कारण वह स्वस्थ और सुखी थी। न कभी चिन्ता होती थी, न कोई कष्ट।
'प्राय: पति इसे सन्तोष तो क्या सौभाग्य समझेंगे? क्योंकि जो पत्नी हर समय फरमाइशें लेकर पति की छाती पर चढ़ती रहे वह सारे गृहस्थ के लिए एक रोग सिध्द होती है।
''कम-से-कम मेरी तो यही सम्मति है कि सीमा से बढ़ा हुआ प्रेम पत्नी के लिए सम्भवत: गौरव की बात हो, किन्तु पति के लिए एक विपत्ति से कम सोचिए तो सही कि क्या पुरुष का यही काम रह गया है कि वह हर समय यही तोलता-जोखता रहे कि उसकी पत्नी उसे कितना चाहती है, मेरा तो यह दृष्टिकोण है कि गृहस्थ का जीवन उस समय अच्छा व्यतीत होता है जब पति अपना काम करे और पत्नी अपना।
''स्त्री का सौन्दर्य और प्रेम यानी तिरिया-चरित्र पुरुष की बुध्दि से परे की चीज है, किन्तु स्त्री-पुरुष के प्रेम के उतार-चढ़ाव और उसके न्यूनाधिक अन्तर को गम्भीर दृष्टि से देखती रहती है। वह शब्दों के लहजे और छिपी हुई बात के अर्थ को झट अलग कर लेती है। इसका कारण केवल यह है कि जीवन के व्यापार में स्त्री की पूंजी लेकर केवल पुरुष का प्रेम है। यही उनके जीवन का एकमात्र सहारा है। यदि वह पुरुष की रुचि के वायु के प्रवाह को अपनी जीवन-नैया के वितान से स्पर्श करने में सफल हो जाए तो विश्वस्तत: नैया अभिप्राय के तट तक पहुंच जाती है। इसीलिए प्रेम का कल्पना-यन्त्र पुरुष के हृदय में नहीं, स्त्री के हृदय में लगाया गया है।
''प्रकृति ने पुरुष और स्त्री की रुचि में स्पष्ट रूप से अन्तर रखा है, किन्तु पाश्चात्य सभ्यता इस स्त्री-पुरुष के अन्तर को मिटा देने पर तुली हुई है। स्त्री पुरुष बनी जा रही है और पुरुष स्त्री। स्त्री-पुरुष के चरित्र तथा उसके कार्य-क्षेत्र को अपने जीवन की पूंजी और पुरुष स्त्रियोचित चरित्र तथा नारी-कर्म-क्षेत्र को अपने जीवन का आनन्द समझने लगे हैं। इसलिए यह कठिन हो गया है कि विवाह के समय कोई यह कह सके कि वधू स्त्री है या स्त्रीनुमा स्त्री पुरुष। इसी प्रकार स्त्री अनुमान लगा सकती है कि जिसके पल्ले वह बंध रही है वह पुरुष है या पुरुषनुमा स्त्री। इसलिए कि अन्तर केवल हृदय का है। पर क्या जाने कि पुरुष का हृदय मरदाना है या जनाना?
''मैं बहुत देर से आपको शुष्क बातें सुना रहा हूं, परन्तु किसी सीमा तक क्षमा के योग्य भी हूं। मैं अपनों से दूर निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा हूं। मेरी दशा उस तमाशा देखने वाले दर्शक के समान है जो दूर से गृहस्थ-जीवन का तमाशा देख रहा हो और वह उसके गुणों से लाभ उठाकर केवल उसके लिए कुछ सोच सकता हो। इसीलिए दाम्पत्य-जीवन पर मेरे विचार अत्यन्त गम्भीर हैं। मैं अपने शिष्यों के सम्मुख तो वह विचार प्रकट कर नहीं सकता, इसी कारण आपके सामने प्रकट करके अपने हृदय को हल्का कर रहा हूं। आप अवकाश के समय इन पर विचार करें।
''सारांश यह है कि यद्यपि गृहस्थ-जीवन में प्रकट रूप में कोई कष्ट फणीभूषण को न था। समय पर भोजन मिल जाता, घर का प्रबन्ध सुचारु रूप से चल रहा था, किन्तु फिर भी एक प्रकार की विकलता और अविश्वास उसके हृदय में समाया हुआ था और वह नहीं समझ पाता था कि वह है क्या? उसकी दशा उस बच्चे के समान थी जो रो रहा है और नहीं जानता कि उसके हृदय में कोई इच्छा है या नहीं।
''अपनी जीवन-संगिनी के हृदय के स्नेह-रिक्त स्थान को वह सुनहरे और मूल्यवान आभूषणों तथा इसी प्रकार के अन्य उपहारों से भर देना चाहता था।
''उसका चाचा दुर्गामोहन दूसरी तरह का व्यक्ति था। वह अपनी पत्नी के प्रेम को किसी भी मूल्य पर क्रय करने के पक्ष में न था और न ही वह प्रेम के विषय में चिड़चिड़े स्वभाव का था। फिर भी अपनी जीवन-संगिनी के प्रेम की प्राप्ति के लिए भाग्यशाली था।
''जिस प्रकार एक सफल दुकानदार को कहीं तक बे-लिहाज होना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार एक सफल पति बनने के लिए पुरुष को कहीं तक कठोर स्वभाव बन जाना भी अति आवश्यक है। सानुरोध आपको मैं यह सीख देता हूं।''
ठीक उसी समय गीदड़ों की चीख-पुकार जंगल में सुनाई दी। ऐसा ज्ञान होता था कि या तो वे उस स्कूल के अध्यापक के दाम्पत्य-जीवन के मनोविज्ञान पर घिनौना परिहास कर रहे हैं या फणीभूषण की कहानी के प्रवाह को कुछ क्षणों के लिए उस चीख-पुकार से रोक देना चाहते हैं। फिर भी बहुत जल्दी वह चीख-पुकार रुक गई और पहले से भी गहन अंधेरी और शून्यता वायुमण्डल पर छा गई, किन्तु स्कूल के अध्यापक ने पुन: कथा आरम्भ की-
''सहसा फणीभूषण के बड़े व्यवसाय में शिक्षाप्रद अवनति दृष्टिगोचर हुई। यह क्यों हुआ? इसका उत्तर मेरी बुध्दि से परे है। संक्षिप्त में यह कि कुसमय ने उसके लिए बाजार में साख रखना कठिन कर दिया। यदि किसी प्रकार कुछ दिनों के लिए वह एक बड़ी पूंजी प्राप्त करके मण्डियों में फैला सकता तो सम्भव था कि बाजार से माल को न खरीदने के तूफान से बच निकलता, किन्तु इतनी बड़ी रकम का तुरन्त प्रबन्ध खाला का घर न था। यदि स्थानीय साहूकारों से कर्ज मांगता तो अनेक प्रकार की अफवाहें फैल जातीं और उसकी साख को असहनीय हानि पहुंचती। यदि पत्र-व्यवहार से भुगतान का ढंग करता तो रुक्का या पर्चे के बिना संभव न था और इससे उसकी ख्याति को बहुत बड़ा आघात पहुंचने की सम्भावना थी। केवल एक युक्ति थी कि पत्नी के आभूषणों पर रुपया प्राप्त किया जाए और यह विचार उसके हृदय में दृढ़ हो गया।
''फणीभूषण मनीमलिका के पास गया। परन्तु वह ऐसा पति न था कि पत्नी से स्पष्ट और सबलता से कह सके। दुर्भाग्यवश उसे अपनी पत्नी से उतना घनिष्ठ प्रेम था जैसा कि उपन्यास के किसी नायक को नायिका से हो सकता है।
''सूर्य का आकर्षण पृथ्वी पर बहुत अधिक है, किन्तु अधिक प्रभावशाली नहीं। यही दशा फणीभूषण के प्रेम की थी। उस प्रेम का मनीमलिका के हृदय पर कोई प्रभाव न था। किन्तु मरता क्या न करता, आर्थिक कठिनाई की चर्चा, प्रोनोट, कर्जे का कागज, बाजार के उतार-चढ़ाव की दशा, इन सब बातों को कम्पित और अस्वाभाविक स्वर में फणीभूषण ने अपनी पत्नी को बताया। झूठे मान, असत्य विचार और भावावेश में साधारण-सी समस्या जटिल बन गई। अस्पष्ट शब्दों में विषय की गम्भीरता बता कर डरते-डरते अभागे फणीभूषण ने कहा-''तुम्हारे आभूषण!''
''मनीमलिका ने न 'हां' कही और न 'ना' और न उसके मुख से कुछ ज्ञात होता था। उस पर गहरा मौन छाया हुआ था। फणीभूषण के हृदय को गहरा आघात पहुंचा। किन्तु उसने प्रकट न होने दिया। उसमें पुरुषों का-सा वह साहस न था कि प्रत्येक वस्तु का वह प्रतिदिन निरीक्षण करता। उसके इन्कार पर उसने किसी प्रकार की चिन्ता प्रदर्शित न की। वह ऐसे विचारों का व्यक्ति था कि प्रेम के जगत में शक्ति और आधिक्य से काम नहीं चल सकता। पत्नी की स्वीकृति के बिना वह आभूषणों को छूना भी पाप समझता था। इसलिए निराश होकर रुपये की प्राप्ति के लिए युक्तियां सोचकर कलकत्ता चला गया।''


क्रमशः...........................

This is a very basic tip, but a lot of people don’t seem to know it...

○System Administration:       
                           ♠♠♠ The root drive (commonly C:) is not the safest of place to store your important files. What if suddenly something goes wrong with your Windows installation, like a virus attack or some corrupted system files. Anything that forces you to reformat your root drive – you can say goodbye all your important files stored files in C:.
When trying to save a new document in Word or Excel for the first time, it takes you to the default My Documents folder. You either save it in this folder or you change the path to your own folder in another drive. Incidentally, the My Documents folder is in the root drive itself. So I would strongly advice you not to store your files in the default My Documents unless you plan to have a back up copy in another drive.
A better way is to change the folder to which Word and Excel save by default. This is how:


In MS Word:
Open MS Word. Go to Tools>Options>File Locations. Select ‘Documents’ under ‘File types’ and click on Modify button at the bottom. Now choose any folder in another drive to which you want the files to be save by default. That’s it.



In MS Excel:
Open Excel. Go To Tools>Options>General. You will find a text box titled ‘Default File location‘ showing the path to the default My Documents folder. Just change the path to point to a folder of your choice.





Regards
-"आशु"

Monday 18 July 2011

कवि और कविता - रविन्द्रनाथ टैगोर...

राजमहल के सामने भीड़ लगी हुई थी। एक नवयुवक संन्यासी बीन पर प्रेम-राग अलाप रहा था। उसका मधुर स्वर गूंज रहा था। उसके मुख पर दया और सहृदता के भाव प्रकट हो रहे थे। स्वर के उतार-चढ़ाव और बीन की झंकार दोनों ने मिलकर बहुत ही आनन्दप्रद स्थिति उत्पन्न कर रखी थी। दर्शक झूम-झूमकर आनन्द प्राप्त कर रहे थे।
गाना समाप्त हुआ, दर्शक चौंक उठे। रुपये-पैसे की वर्षा होने लगी। एक-एक करके भीड़ छटने लगी। नवयुवक संन्यासी ने सामने पड़े हुए रुपये-पैसों को बड़े ध्यान से देखा और आप-ही-आप मुस्करा दिया। उसने बिखरी हुई दौलत को एकत्रित किया और फिर उसे ठोकर मारकर बिखरा दिया। इसके पश्चात् बीन उठाकर एक ओर चल दिया।

2
राजकुमारी माया ने भी उस नवयुवक संन्यासी का गाना सुना था। दर्शक प्रतिदिन वहां आते और संन्यासी को न पाकर निराश हो वापस चले जाते थे। राजकुमारी माया भी प्रतिदिन राजमहल के सामने देखती और घंटों देखती रहती। जब रात्रि का अन्धकार सर्वत्र अपना आधिपत्य जमा लेता तो राजकुमारी खिड़की में से उठती। उठने से पहले वह सर्वदा एक निराशाजनक करुणामय आह खींचा करती थी।
इसी प्रकार दिन, हफ्ते और महीने बीत गए। वर्ष समाप्त हो गया, परन्तु युवक संन्यासी फिर दिखाई न दिया। जो व्यक्ति उसकी खोज में आया करते थे, धीरे-धीरे उन्होंने वहां आना छोड़ दिया। वे उस घटना को भूल गये, किन्तु राजकुमारी माया...
राजकुमारी माया उस युवक संन्यासी को हृदय से न भुला सकी। उसकी आंखों में हर समय उसका चित्र फिरता। होते-होते उसने भी गाने का अभ्यास किया। वह प्रतिदिन अपने उद्यान में जाती और गाने का अभ्यास करती। जिस समय रात्रि की नीरवता में सोहनी की लय गूंजती तो सुनने वाले ज्ञान-शून्य हो जाते।

3
राजकवि अनंगशेखर युवक था। उसकी कविता प्रभावशाली और जोरदार होती थी। जिस समय वह दरबार में अपनी कविता गायन के साथ पढ़कर सुनाता तो सुनने वालों पर मादकता की लहर दौड़ जाती, शून्यता का राज्य हर ओर होता। राजकुमारी माया को कविता से प्रेम था। सम्भवत: वह भी अनंगशेखर की कविता सुनने के लिए विशेषत: दरबार में आ जाती थी।
राजकुमारी की उपस्थिति में अनंगशेखर की जुबान लड़खड़ा जाती। वह ज्ञान-शून्य-सा खोया-खोया हो जाता, किन्तु इसके साथ ही उसकी भावनाएं जागृत हो जातीं। वह झूम-झूमकर और उदाहरणों को सम्मुख रखता। सुनने वाले अनुरक्त हो जाते। राजकुमारी के हृदय में भी प्रेम की नदी तरंगें लेने लगती। उसको अनंगशेखर से कुछ प्रेम अनुभव होता, किन्तु तुरन्त ही उसकी आंखें खुल जातीं और युवक संन्यासी का चित्र उसके सामने फिरने लगता। ऐसे मौके पर उसकी आंखों से आंसू छलकने लगते। अनंगशेखर आंसू-भरे नेत्रों पर दृष्टि डालता तो स्वयं भी आंसुओं के प्रवाह में बहने लगता। उस समय वह शस्त्र डाल देता और अपनी जुबान से आप ही कहता- ''मैं अपनी पराजय मान चुका।''
कवि अपनी धुन में मस्त था। चहुंओर प्रसन्नता और आनन्द दृष्टिगोचर होता था। वह अपने विचारों में इतना मग्न था जैसे प्रकृति के आंचल में रंगरेलियां मना रहा हो।
सहसा वह चौंक पड़ा। उसने आंखें फाड़-फाड़कर अपने चहुंओर दृष्टि डाली और फिर एक उसांस ली। सामने एक कागज पड़ा था। उस पर कुछ पंक्तियां लिखी हुई थीं। रात्रि का अन्धकार फैलता जा रहा था। वह वापस हुआ।
राजमहल समीप था और उससे मिला हुआ उद्यान था। अनंगशेखर बेकाबू हो गया। राजकुमारी की खोज उसको बरबस उद्यान के अन्दर ले गई।
चन्द्रमा की किरणें जलस्रोत की लहरों से अठखेलियां कर रही थीं, प्रत्येक दिशा में जूही और मालती की गन्ध प्रसारित थी, कवि आनन्दप्रद दृश्य को देखने में तल्लीन हो गया। भय और शंका ने उसे आ दबाया। वह आगे कदम न उठा सका। समीप ही एक घना वृक्ष था। उसकी छाया में खड़े होकर वह उद्यान के बाहर का आनन्द प्राप्त करने लगा। इसी बीच में वायु का एक मधुर झोंका आया। उसने अपने शरीर में एक कम्पन अनुभव किया। इसके बाद उद्यान से एक मधुर स्वर गूंजा, कोई गा रहा था। वह अपने-आपे में न था, कुछ खो-सा गया। मालूम नहीं इस स्थिति में वह कितनी देर खड़ा रहा? जिस समय वह होश में आया, तो देखा कोई पास खड़ा है। वह चौंक उठा, उसके सामने राजकुमारी माया खड़ी थी।
अनंगशेखर का सिर नीचा हो गया। राजकुमारी ने मुस्कराते हुए होंठों से पूछा- ''अनंगशेखर, तुम यहां क्यों आये?''
कवि ने सिर उठाया, फिर कुछ लजाते हुए राजकुमारी की ओर देखा, फिर से मुख से कुछ न कहा।
राजकुमारी ने फिर पूछा-''तुम यहां क्यों आये?''
इस बार कवि ने साहस से काम लिया। हाथ में जो पत्र था वह राजकुमारी को दे दिया। राजकुमारी ने कविता पढ़ी। उस कविता को अपने पास रखना चाहा; किन्तु वह छूटकर हाथ से गिर गई। राजकुमारी तीर की भांति वहां से चली गई। अब कवि से सहन न हो सका, वह ज्ञान-शून्य होकर चिल्ला उठा-''माया, माया!''
परन्तु अब माया कहां थी।

4
राजदरबार में एक युवक आया, दरबारी चिल्ला उठे- ''अरे, यह तो वही संन्यासी है जो उस दिन राजमहल के सामने गा रहा था।
राजा ने मालूम किया- ''यह युवक कौन है?''
युवक ने उत्तर दिया- ''महाशय, मैं कवि हूं।''
राजकुमारी उस युवक को देखकर चौंक उठी।
राजकवि ने भी उस युवक पर दृष्टि डाली, मुख फक हो गया। पास ही एक व्यक्ति बैठा हुआ था, उसने कहा- ''वाह! यह तो एक भिक्षुक है।''
राजकवि बोल उठा- ''नहीं, उसका अपमान न करो, वह कवि है।''
चहुंओर सन्नाटा छा गया। महाराज ने उस युवक से कहा- ''कोई अपनी कविता सुनाओ।''
युवक आगे बढ़ा, उसने राजकुमारी को और राजकुमारी ने उसको देखा। स्वाभिमान अनुभव करते हुए उसने कदम आगे बढ़ाये।
राजकवि ने भी यह स्थिति देखी तो उसके मुख पर हवाइयां उड़ने लगीं।
युवक ने अपनी कविता सुनानी आरम्भ की। प्रत्येक चरण पर 'वाह-वाह' की ध्वनियां गूंजने लगीं, किसी ने ऐसी कविता आज तक न सुनी थी।
युवक का मुख स्वाभिमान और प्रसन्नता से दमक उठा। वह मस्त हाथी की भांति झूमता हुआ आया और अपने स्थान पर बैठ गया। उसने एक बार फिर राजकुमारी की ओर देखा और इसके पश्चात् राजकवि की ओर।
महाराज ने राजकवि से कहा- ''तुम भी अपनी कविता सुनाओ।''
अनंगशेखर चेतना-शून्य-सा बैठा था। उसके मुख पर निराशा और असफलता की झलक प्रकट हो रही थी।
महाराज फिर बोले- ''अनंगशेखर! किस चिन्ता में निमग्न हो? क्या इस युवक-कवि का उत्तर तुमसे नहीं बन पड़ेगा?''
यह अपमान कवि के लिए असहनीय था! उसकी आंखें रक्तिम हो गयीं, वह अपने स्थान से उठा और आगे बढ़ा। उस समय उसके कदम डगमगा रहे थे।
आगे पहुंचकर वह रुका, हृदय खोलकर उसने अपनी काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन किया। चहुंओर शून्यता और ज्ञान-शून्यता छा गई, श्रोता मूर्ति-से बनकर रह गये।
राजकवि मौन हो गया। एक बार उसने चहुंओर दृष्टिपात किया। उस समय राजकुमारी का मुख पीला था। उस युवक का घमण्ड टूट चुका था। धीरे-धीरे सब दरबारी नींद से चौंके, चहुंओर से 'धन्य है, धन्य है' की ध्वनि गूंजी। महाराज ने राजसिंहासन से उठकर कवि को अपने हृदय से लगा लिया। कवि की यह अन्तिम विजय थी।
महाराज ने निवेदन किया- ''अनंग! मांगो क्या मांगते हो? जो मांगोगे दूंगा।''
राजकवि कुछ देर तक सोचता रहा। इसके बाद उसने कहा- ''महाराज मुझे और कुछ नहीं चाहिए! मैं केवल राजकुमारी का इच्छुक हूं।''
यह सुनते ही राजकुमारी को गश आ गया। कवि ने फिर कहा- ''महाराज, आपके कथनानुसार राजकुमारी मेरी हो चुकी, अब जो चाहूं कर सकता हूं।'' यह कहकर उसने युवक-कवि को अपने समीप बुलाया और कहा-
''मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य यह था कि राजकुमारी का प्रेम प्राप्त करूं। तुम नहीं जानते कि राजकुमारी की प्रसन्नता और सुख के लिए मैं अपने प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार हूं। हां, युवक! तुम इनमें से किसी बात से परिचित नहीं हो; किन्तु थोड़ी देर के पश्चात् तुमको ज्ञात हो जायेगा कि मैं ठीक कहता था या नहीं।''
कवि की जुबान रुक गई, उसका स्वर भारी हो गया, सिलसिला जारी रखते हुए उसने कहा- ''क्या तुम जानते हो कि मैंने क्या देखा? नहीं। और इसका न जानना ही तुम्हारे लिए अच्छा है। सोचता था, जीवन सुख से व्यतीत होगा, परन्तु यह आशा भ्रमित सिध्द हुई। जिससे मुझे प्रेम है वह अपना हृदय किसी और को भेंट कर चुकी है। जानते हो अब राजकुमारी को मैं पाकर भी प्रसन्न न हो सकूंगा; क्योंकि राजकुमारी प्रसन्न न हो सकेगी। आओ, युवक आगे आओ! तुम्हें मुझसे घृणा हो तो, बेशक हुआ करे, आओ आज मैं अपनी सम्पूर्ण संपत्ति तुम्हें सौंपता हूं।''
राजकवि मौन हो गया। किन्तु उसका मौन क्षणिक था। सहसा उसने महाराज से कहा- ''महाराज, एक विनती है और वह यह कि मेरे स्थान पर इस युवक को राजकवि बनाया जाए।''
राजकवि के कदम लड़खड़ाने लगे। देखते-देखते वह पृथ्वी पर आ रहा। अन्तिम बार पथराई हुई दृष्टि से उसने राजकुमारी की ओर देखा, यह दृष्टि अर्थमयी थी। वह राजकुमारी से कह रहा था- ''मेरी प्रसन्नता यही है कि तुम प्रसन्न रहो। विदा।''
इसके पश्चात् कवि ने अपनी आंख बन्द कर लीं और ऐसी बन्द कीं कि फिर न खुलीं।