♣♣♣ " ऊपर जिसका अंत नहीं उसे आसमां कहते हैं, और नीचे जिसका अंत नहीं उसे माँ कहते हैं..."

Tuesday 28 June 2011

नवधा भक्ति


नवधा भक्ति

रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)        
श्री राम जी और शबरी जी का मिलन
दो:-कंद मूल फल अति दिए राम कहूँ आणि |
     प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानी ||
 

अर्थात-शबरी जी ने रसीले और स्वादिष्ट फल लाकर श्री राम जी को दिए|
          प्रभु बार बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाए ||
शबरी जी:-हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गयी| 
श्री राम जी को देखकर उनका प्रेम 
               अत्यंत बढ गया|उन्होंने कहा में नीच जाती की और मुढ़बुद्धि हूँ ||
"श्री राम जी ":--में तो केवल एक भक्ति ही का सम्बन्ध मानता हूँ| मैं तुझसे अपनी 
                                      नवधा भक्ति कहता हूँ | तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर |
          
पहली भक्ति हैं- -:-संतो का सत्संग| 
दूसरी भक्ति हैं- -:-मेरे कथा-प्रसंग में प्रेम |

तीसरी भक्ति हैं:-अभिमानरहित होकर गुरु के चरण-कमलों की सेवा और 
        
चोथी भक्ति हैं- :-कि कपट छोड़ कर मेरे गुणसमूहों का गान करे ||मेरे (राम )
           मन्त्र का जाप और मुझमे दृढ़ विश्वास-यह है,

पांचवी भक्ति:-जो वेदों में प्रसिद्ध हैं|

छठी भक्ति हैं--- इन्द्रियों का निग्रह,शील(अच्हा स्वभाव या चरित्र),भूत कार्यो 
            से वैराग्ग्य और निरंतर संत पुरषों के धर्म (आचरण)में लगे रहना ||

सातवीं भक्ति हैं---जगतभर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत(राममय)देखना और संतोको 
            मुझसे भी अधिक करके मानना|

आठवीं भक्ति हैं- -जो कुछ मिल जाए,उसमें संतोष 
            करना और स्वपन में भी पराये दोषों को ना देखना ||

नवीं भक्ति हैं- -सरलता और सबके 
             साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में
             हर्ष और विषाद ना होना| इन नवों में से जिनके पास एक भी होती  हैं| मुझे वह अत्यंत 
             प्रिय हैं|



सौजन्य :- 
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