♣♣♣ " ऊपर जिसका अंत नहीं उसे आसमां कहते हैं, और नीचे जिसका अंत नहीं उसे माँ कहते हैं..."

मन - मंथन

(१) सुखी व्यक्ति की खोज
चाँदपुर इलाके के राजा कुँवरसिंह जी बड़े अमीर थे। उन्हें किसी चीज़ की कमी 
नहीं थी,फिर भी उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। बीमारी के मारे वे सदा परेशान
 रहते थे। कई वैद्यों ने उनका इलाज किया, लेकिन उनको कुछ फ़ायदा नहीं हुआ।
राजा की बीमारी बढ़ती गई। सारे नगर में यह बात फैल गई। तब एक बूढ़े ने राजा
 के पास आकर कहा, ''महाराज, आपकी बीमारी का इलाज करने की मुझे 
आज्ञा दीजिए।'' राजा से अनुमति पाकर वह बोला, ''आप किसी सुखी 
मनुष्य का कुरता पहनिए, अवश्य स्वस्थ हो जाएँगे।''
बूढ़े की बात सुनकर सभी दरबारी हँसने लगे, लेकिन राजा ने सोचा, ''इतने इलाज
 किए हैं तो एक और सही।'' राजा के सेवकों ने सुखी मनुष्य की बहुत खोज की, 
लेकिन उन्हें कोई पूर्ण सुखी मनुष्य नहीं मिला। सभी लोगों को किसी न किसी
 बात का दुख था।
अब राजा स्वयं सुखी मनुष्य की खोज में निकल पड़े। बहुत तलाश के
 बाद वे एक खेत में जा पहुँचे। जेठ की धूर में एक किसान अपने काम में 
लगा हुआ था। राजा ने उससे पूछा, ''क्यों जी, तुम सुखी हो?'' किसान की
 आँखें चमक उठी, चेहरा मुस्करा उठा। वह बोला, ''ईश्वर की कृपा से मुझे
कोई दुख नहीं है।'' यह सुनकर राजा का अंग-अंग मुस्करा उठा। उस किसान
 का कुरता माँगने के लिए ज्यों ही उन्होंने उसके शरीर की ओर देखा, उन्हें 
मालूम हुआ कि किसान सिर्फ़ धोती पहने हुए है और उसकी सारी देह पसीने
 से तर है।
राजा समझ गया कि श्रम करने के कारण ही यह किसान सच्चा सुखी
 है। उन्होंने आराम-चैन छोड़कर परिश्रम करने का संकल्प किया।
थोड़े ही दिनों में राजा की बीमारी दूर हो गई।



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(२) विश्वास
एक डाकू था जो साधू के भेष में रहता था। वह लूट का धन गरीबों में बाँटता था।
 एक दिन कुछ व्यापारियों का जुलूस उस डाकू के ठिकाने से गुज़र रहा था।
 सभी व्यापारियों को डाकू ने घेर लिया। डाकू की नज़रों से बचाकर एक
 व्यापारी रुपयों की थैली लेकर नज़दीकी तंबू में घूस गया। वहाँ उसने एक
 साधू को माला जपते देखा। व्यापारी ने वह थैली उस साधू को संभालने

 के लिए दे दी। साधू ने कहा की तुम निश्चिन्त हो जाओ।


डाकूओं के जाने के बाद व्यापारी अपनी थैली लेने वापस तंबू में आया।

 उसके आश्चर्य का पार न था। वह साधू तो डाकूओं की टोली का सरदार था।
 लूट के रुपयों को वह दूसरे डाकूओं को बाँट रहा था। व्यापारी वहाँ से निरा
 होकर वापस जाने लगा मगर उस साधू ने व्यापारी को देख लिया। उसने 
कहा; "रूको, तुमने जो रूपयों की थैली रखी थी वह ज्यों की त्यों ही है।"
अपने रुपयों को सलामत देखकर व्यापारी खुश हो गया। डाकू का आभार मानक
 वह बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद वहाँ बैठे अन्य डाकूओं ने सरदार से
 पूछा कि हाथ में आये धन को इस प्रकार क्यों जाने दिया। सरदार ने कहा;
 "व्यापारी मुझे भगवान का भक्त जानकर भरोसे के साथ थैली दे गया था।
 उसी कर्तव्यभाव से मैंने उन्हें थैली वापस दे दी।"
किसी के विशवास को तोड़ने से सच्चाई और ईमानदारी हमेशा के लिए शक
 के घेरे में आ जाती है।

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(३) स्वर्ग और नरक
एक युवक था। वह बंदूक और तलवार चलाना सीख रहा था। इसलिए वह यदा-कदा
 जंगल जाकर खरगोश, लोमड़ी और पक्षियों आदि का शिकार करता। शिकार
 करते-करते उसे यह घमंड हो गया कि उसके जैसा निशानेबाज़ कोई नहीं है 
और न उसके जैसा कोई तलवार चलाने वाला। आगे चलकर वह इतना घमंडी
 हो गया कि किसी बड़े के प्रति शिष्टाचार भी भूल गया।उसके गाँव के बाहर 
कुटिया में एक संत रहते थे। वह एक दिन उनके पास पहुँचा। न उन्हें प्रणाम
 किया और न ही अपना परिचय दिया। सीधे उनके सामने पड़े आसन पर बैठ
 गया और कहने लगा, 'लोग बेकार में स्वर्ग-नरक में विश्वास करते हैं?

संत ने उससे पूछा, 'तुम तलवार साथ में क्यों रखते हो?'

उसने कहा, 'मुझे सेना में भर्ती होना है, कर्नल बनना है।'
इस पर संत ने कहा, 'तुम्हारे जैसे लोग सेना में भर्ती किए जाते हैं? 

पहले अपनी शक्ल शीशे में जाकर देख लो।'
यह सुनते ही युवक ग़ुस्से में आ गया और उसने म्यान से तलवार निकाल 
ली। तब संत ने फिर कहा, 'वाह! तुम्हारी तलवार भी कैसी है? इससे तुम
 किसी भी बहादुर आदमी का सामना नहीं कर सकते, क्योंकि वीरों की
 तलवार की चमक कुछ और ही होती है।'
फिर तो युवक गुस्से से आग-बबूला हो गया और संत को मारने के लिए
 झपटा। तब संत ने शांत स्वर से कहा, 'अब तुम्हारे लिए नरक का दरवाज़ा
 खुल गया।'
यह सुनते ही युवक की अक्ल खुल गई और उसने तलवार म्यान में रख ली। 
अब वह सर झुककर संत के सामने खड़ा था और अपराधी जैसा भाव दिखा रहा
 था। इस पर संत ने कहा, 'अब तुम्हारे लिए स्वर्ग का दरवाज़ा खुल गया।'
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