♣♣♣ " ऊपर जिसका अंत नहीं उसे आसमां कहते हैं, और नीचे जिसका अंत नहीं उसे माँ कहते हैं..."

Wednesday 29 June 2011

♣♣♣ भगवती मानव कल्याण संगठन ♣♣♣


भगवती मानव कल्याण संगठन


समाज को नवीन् अद्यात्मिक् दिशा प्रदान करने एवं जन-जन में मां भगवती की मूल चेतना को स्थापित कर जन-जन के कल्याण के लिये धर्मसम्राट युगचेतना पुरुष परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज द्वारा गठित भगवती मानव कल्याण संगठन वर्तमान मे एक मात्र ऐसा संगठन है जो भारत की मूल संसक्रिति कि रक्षा करता हुआ, समाज मे छाए असुरत्व, सामजिक बुराइयों, छुआ-छूत तथा जति-पात्, सम्प्रदायिकता आदि के भेद-भाव को नष्ट कर मानव कल्याण् मे हर क्षण तत्पर है | पूर्ण नशामुक्त तथा मांशाहार मुक्त समाज के निर्माण हेतु पारिवारिक, सामाजिक द्रिष्टिकोण के रक्षार्थ यह संगठन समाज के सभी जाति , धर्म, वर्ग के लोगों के साथ ही समस्त धर्मप्रेमी जनता, प्रशासनिक तथा रजनितिक वर्ग के सदस्यों, समाजिक संगठनो तथा बुधिजिवी वर्ग का युग परिवर्तन की इस यत्रा में शामिल होने हेतु आवाहन करता है।


पंचज्योति शक्तितिर्थ सिद्दश्रम(ट्रष्ट)
पोस्ट- मउ, तहसील-ब्यौहारी
जिला- शहडोल (म.प्र.)
पिन्-484774
फोन-07650-200666, 280503, 3424335081, 9981005001, 9630717444, 9630181618








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Tuesday 28 June 2011

अकलमंद पुत्रवधू -बाल कहानियाँ



बाल कहानियाँ
एक किसान था। इस बार फसल कम होने की वजह से चिंतित था। घर में राशन ग्यारह महीने चल सके उतना ही था। बाकी एक महीने का राशन कैसे लायेगा, कहाँ से इसका इंतजाम होगा यह चिंता उसे बार-बार सता रही थी। 

किसान की पुत्रवधू ने यह ध्यान दिया कि पिताजी किसी बात को लेकर परेशान है। पुत्रवधू ने किसान से पूछा कि - "क्या बात है, पिताजी ? आप इतना परेशान क्यों है ?" 

तब किसान ने अपनी चिंता का कारण पुत्रवधू को बताया कि - "इस साल फसल कम होने कि वजह से ग्यारह महीने चल सके उतना ही राशन है। बाकी एक महिना कैसे गुजरेगा यही सोच रहा है ?" 

किसान की यह बात सुनकर पुत्रवधू ने थोडा सोचकर कहा - "पिताजी, आप चिंता ना करे, बेफिक्र हो जाए, उसका इंतजाम हो जायेगा।" 

ग्यारह महीने बीत गए, अब बारहवा महिना भी आराम से पसार हो गया। किसान सोच में पड़ गया कि - "घर में अनाज तो ग्यारह महीने चले उतना ही था, तो ये बारहवा महिना आराम से कैसे गुजरा ?"

किसान ने अपनी पुत्रवधू को बुलवाकर पूछा - "बेटी, ग्यारह महीने का राशन बारहवे महीने तक कैसे चला ? यह चमत्कार कैसे हुआ ?" 

तब पुत्रवधू ने जवाब दिया कि - "पिताजी, राशन तो ग्यारह महीने चले उतना ही था। किन्तु, जिस दिन आपने अपनी चिंता का कारण बताया... उसी दिन से रसोई के लिए जो भी अनाज निकालती उसी में से एक-दो मुट्ठी हररोज वापस कोठी में दाल देती। बस उसी की वजह से यह बारहवे महीने का इंतजाम हो गया। और बिना तकलिफ़ के बारहवा महिना आराम से गुजर गया।" 

किसान ने यह बात सुनी तो दंग सा रह गया । और अपनी पुत्रवधू की बचत समझदारी की अकलमंदी पर गर्व करने लगा।








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कश्मीरी सेब - प्रेमचंद की कहानियां


कल शाम को चौक में दो-चार जरूरी चीजें खरीदने गया था। पंजाबी मेवाफरोशों की दूकानें रास्ते ही में पड़ती हैं। एक दूकान पर बहुत अच्छे रंगदार,गुलाबी सेब सजे हुए नजर आये। जी ललचा उठा। आजकल शिक्षित समाज में विटामिन और प्रोटीन के शब्दों में विचार करने की प्रवृत्ति हो गई है। टमाटो को पहले कोई सेंत में भी न पूछता था। अब टमाटो भोजन का आवश्यक अंग बन गया है। गाजर भी पहले ग़रीबों के पेट भरने की चीज थी। अमीर लोग तो उसका हलवा ही खाते थे; मगर अब पता चला है कि गाजर में भी बहुत विटामिन हैं, इसलिए गाजर को भी मेजों पर स्थान मिलने लगा है। और सेब के विषय में तो यह कहा जाने लगा है कि एक सेब रोज खाइए तो आपको डाक्टरों की जरूरत न रहेगी। डाक्टर से बचने के लिए हम निमकौड़ी तक खाने को तैयार हो सकते हैं। सेब तो रस और स्वाद में अगर आम से बढक़र नहीं है तो घटकर भी नहीं। हाँ, बनारस के लंगड़े और लखनऊ के दसहरी और बम्बई के अल्फाँसो की बात दूसरी है। उनके टक्कर का फल तो संसार में दूसरा नहीं है मगर; मगर उनमें विटामिन और प्रोटीन है या नहीं, है तो काफी है या नहीं, इन विषयों पर अभी किसी पश्चिमी डाक्टर की व्यवस्था देखने में नहीं आयी। सेब को यह व्यवस्था मिल चुकी है। अब वह केवल स्वाद की चीज नहीं है, उसमें गुण भी है। हमने दूकानदार से मोल-भाव किया और आध सेर सेब माँगे।

दुकानदार ने कहा-बाबूजी बड़े मजेदार सेब आये हैं, खास कश्मीर के। आप ले जाएँ, खाकर तबीयत खुश हो जाएगी ।

मैंने रूमाल निकालकर उसे देते हुए कहा-चुन-चुनकर रखना।

दूकानदार ने तराजू उठाई और अपने नौकर से बोला-लौंडे आध सेर कश्मीरी सेब निकाल ला। चुनकर लाना ।

लौंडा चार सेब लाया। दूकानदार ने तौला, एक लिफाफे में उन्हें रखा और रूमाल में बाँधकर मुझे दे दिया। मैंने चार आने उसके हाथ में रखे ।

घर आकर लिफ़ाफा ज्यों-का-त्यों रख दिया। रात को सेब या कोई दूसरा फल खाने का कायदा नहीं है। फल खाने का समय तो प्रात:काल है । आज सुबह मुँह-हाथ धोकर जो नाश्ता करने के लिए एक सेब निकाला, तो सड़ा हुआ था। एक रुपये के आकार का छिलका गल गया था। समझा, रात को दूकानदार ने देखा न होगा। दूसरा निकाला। मगर यह आधा सड़ा हुआ था। अब सन्देह हुआ, दुकानदार ने मुझे धोखा तो नहीं दिया है। तीसरा सेब निकाला। यह सड़ा तो न था; मगर एक तरफ दबकर बिल्कुल पिचक गया। चौथा देखा। वह यों तो बेदाग था; मगर उसमें एक काला सूराख था जैसा अक्सर बेरों में होता है। काटा तो भीतर वैसे ही धब्बे, जैसे किड़हे बेर में होते हैं। एक सेब भी खाने लायक नहीं। चार आने पैसों का इतना गम न हुआ जितना समाज के इस चारित्रिक पतन का। दूकानदार ने जान-बूझकर मेरे साथ धोखेबाजी का व्यवहार किया। एक सेब सड़ा हुआ होता, तो मैं उसको क्षमा के योग्य समझता। सोचता, उसकी निगाह न पड़ी होगी। मगर चार-के-चारों खराब निकल जाएँ, यह तो साफ धोखा है। मगर इस धोखे में मेरा भी सहयोग था। मेरा उसके हाथ में रूमाल रख देना मानो उसे धोखा देने की प्रेरणा थी। उसने भाँप लिया कि महाशय अपनी आँखों से काम लेने वाले जीव नहीं हैं और न इतने चौकस हैं कि घर से लौटाने आएँ। आदमी बेइमानी तभी करता जब उसे अवसर मिलता है। बेइमानी का अवसर देना, चाहे वह अपने ढीलेपन से हो या सहज विश्वास से, बेइमानी में सहयोग देना है। पढ़े-लिखे बाबुओं और कर्मचारियों पर तो अब कोई विश्वास नहीं करता। किसी थाने या कचहरी या म्यूनिसिपिलटी में चले जाइए, आपकी ऐसी दुर्गति होगी कि आप बड़ी-से-बड़ी हानि उठाकर भी उधर न जाएँगे। व्यापारियों की साख अभी तक बनी हुई थी। यों तौल में चाहे छटाँक-आध-छटाँक कस लें; लेकिन आप उन्हें पाँच की जगह भूल से दस के नोट दे आते थे तो आपको घबड़ाने की कोई जरूरत न थी। आपके रुपये सुरक्षित थे। मुझे याद है, एक बार मैंने मुहर्रम के मेले में एक खोंचे वाले से एक पैसे की रेवडिय़ाँ ली थीं और पैसे की जगह अठन्नी दे आया था। घर आकर जब अपनी भूल मालूम हुई तो खोंचे वाले के पास दौड़ा गये। आशा नहीं थी कि वह अठन्नी लौटाएगा, लेकिन उसने प्रसन्नचित्त से अठन्नी लौटा दी और उलटे मुझसे क्षमा माँगी। और यहाँ कश्मीरी सेब के नाम से सड़े हुए सेब बेचे जाते हैं? मुझे आशा है, पाठक बाज़ार में जाकर मेरी तरह आँखे न बन्द कर लिया करेंगे। नहीं उन्हें भी कश्मीरी सेब ही मिलेंगे ?

नवधा भक्ति


नवधा भक्ति

रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)        
श्री राम जी और शबरी जी का मिलन
दो:-कंद मूल फल अति दिए राम कहूँ आणि |
     प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानी ||
 

अर्थात-शबरी जी ने रसीले और स्वादिष्ट फल लाकर श्री राम जी को दिए|
          प्रभु बार बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाए ||
शबरी जी:-हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गयी| 
श्री राम जी को देखकर उनका प्रेम 
               अत्यंत बढ गया|उन्होंने कहा में नीच जाती की और मुढ़बुद्धि हूँ ||
"श्री राम जी ":--में तो केवल एक भक्ति ही का सम्बन्ध मानता हूँ| मैं तुझसे अपनी 
                                      नवधा भक्ति कहता हूँ | तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर |
          
पहली भक्ति हैं- -:-संतो का सत्संग| 
दूसरी भक्ति हैं- -:-मेरे कथा-प्रसंग में प्रेम |

तीसरी भक्ति हैं:-अभिमानरहित होकर गुरु के चरण-कमलों की सेवा और 
        
चोथी भक्ति हैं- :-कि कपट छोड़ कर मेरे गुणसमूहों का गान करे ||मेरे (राम )
           मन्त्र का जाप और मुझमे दृढ़ विश्वास-यह है,

पांचवी भक्ति:-जो वेदों में प्रसिद्ध हैं|

छठी भक्ति हैं--- इन्द्रियों का निग्रह,शील(अच्हा स्वभाव या चरित्र),भूत कार्यो 
            से वैराग्ग्य और निरंतर संत पुरषों के धर्म (आचरण)में लगे रहना ||

सातवीं भक्ति हैं---जगतभर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत(राममय)देखना और संतोको 
            मुझसे भी अधिक करके मानना|

आठवीं भक्ति हैं- -जो कुछ मिल जाए,उसमें संतोष 
            करना और स्वपन में भी पराये दोषों को ना देखना ||

नवीं भक्ति हैं- -सरलता और सबके 
             साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में
             हर्ष और विषाद ना होना| इन नवों में से जिनके पास एक भी होती  हैं| मुझे वह अत्यंत 
             प्रिय हैं|



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