♣♣♣ " ऊपर जिसका अंत नहीं उसे आसमां कहते हैं, और नीचे जिसका अंत नहीं उसे माँ कहते हैं..."

Friday, 29 July 2011

” जैसा मन में भरा होगा वैसा ही जीवन मिलेगा ”


भागवत पुराण के अनुसार एक राजा हुए जिनका नाम था भरत | वे बहुत ही पराक्रमी और धार्मिक राजा थे | जब उन्हें वैराग्य हुआ तो उनके मन में आया कि इस भौतिक जगत , राज्य इत्यादि में रहने से भक्ति होगी नही , अतः वन में जाना चाहिए | राज त्याग कर वे वन में चले गए | एक कुटिया बनायी और कंद – मूल खाकर रहने लगे | अच्छी दिनचर्या – केवल प्रभु का ध्यान और साधना |
जहां झोंपड़ी बनाई थी , वंही पास में जलधारा बहती थी , जिसमे जंगली जानवर अक्सर जल पीने आते थे | एक बार राजा बाहर बैठकर भगवत – चिंतन कर रहे थे कि देखा , एक हिरनी अपने बच्चे के साथ उस जलधारा में जल पी रही थी | अचानक निकट ही उन्हें शेर के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी | शेर की दहाड़ सुनकर हिरनी घबराकर वेग से जलधारा के पार कूदी | माँ के पीछे -पीछे उसका बच्चा भी कूदा , मगर बीच में ही गिर गया और जान बचाने के लिए हाथ – पैर मारने लगा | बहुत असहाय अवस्था थी | राजा को दया आई | वे जाकर बच्चे को धरा से निकाल लाये | कहीं उसे कोई जंगली जानवर न खा जाये , इस भय से हिरन के बच्चे को अपनी झोंपड़ी में ही रख लिया| धीरे – धीरे वह बड़ा होने लगा | राजा कभी उसके लिए कोमल घास इकठ्ठा करते , तो कभी दूध की व्यवस्था करते | वे उसकी गतिविधियों में खोने लगे | जिस माया को छोड़कर वे वन में आये थे , उसने यहाँ भी उन्हें घेर लिया | अब राजा को हर समय उस हिरन के बच्चे का ही ध्यान बना रहता | कभी उसके खाने – पीने की चिंता करते तो कभी उसकी सुरक्षा की , तो कभी उसका चौकड़ी भरना निहारते रहते | जिस माया पर विजय पाने निकले थे , उसी से हार गए थे |
कृष्ण ने गीता में कहा है कि अंत काल में जो जैसा स्मरण करता है, उसे अगले जन्म में वैसी ही प्राप्ति होती है | राजा भरत का ध्यान अब हिरन में रहता था | इसलिए अंत समय आया तो उन्हें यही चिंता लगी रही कि मेरे बाद इसकी रक्षा कौन करेगा ? भागवत पुराण की कथा के अनुसार वे अगले जन्म में हिरन की ही योनि में पैदा हुए | पूर्व जन्म कि भक्ति के कारण उन्हें सब कुछ याद था, और वे अन्य हिरणों के साथ न रहकर ऋषियों की कुटियों के आस – पास ही मंडराते थे उससे अगले जनम में वे जड़ भरत के नाम से विख्यात हुए इस पूरी कथा को बताने का उद्द्देश्य यह है कि हमारे शास्त्र , हमारे ऋषि , हमारे संत जन सब एक ही बात दोहराते हैं कि मनुष्य जीवन बहुमूल्य है , इसे गंवाना नहीं चाहिए | अक्सर यह बात सुनने को मिलती है कि भई अभी भजन कि क्या आवश्यकता है ? अभी तो हम युवा हैं , बुढापे में देखेंगे कि किसका भजन करना है| लेकिन सच तो यह है कि यही पता नहीं कि हम बुढापा देखेंगे कि नहीं| मान लेते हैं कि हमें किसी प्रकार से लम्बी आयु का वरदान प्राप्त है | लेकिन यह तो स्वाभाविक है किजितनी मेहनत व् प्रयत्न हम अपनी युवा -वस्था में कर लेते हैं, बुढापे में नहीं कर सकते | अगर प्रयत्न पूर्ण नहीं हुआ तो अंत काल में न जाने क्या कारण आ जाए और हमको फिर जन्म -मृत्यु के चक्र में आना पड़ जाये |
कहते हैं कि अगर पत्थर पर भी बार-बार रस्सी फेरो तो निशान पड़ जाता है | अगर हमारे मानस पटल पर दुनियावी बातों के निशान गहरा गए तो अंत काल में भी हमें प्रभु का भजन- चिंतन कहा याद रहेगा | मृत्यु तो अवश्यम्भावी है | हम जो सोचते है कि मुझे कुछ नहीं होगा , मेरी उम्र बड़ी लम्बी है | हम भूल जाते हैं कि अंत काल का समय तो सबका आना है | हो सकता है कोई युवा न हो , यह भी हो सकता है कोई बूढ़ा न हो | पर अंत सबका निश्चित है | फिर यह भी निश्चित नहीं कि पुनर्जन्म मनुष्य के ही रूप में हो | ऐसे में अगर हम जानते बुझते भी अपना भविष्य सुधारने की चेष्टा नहीं करें , तो कौन हमें बुद्धिमान मानेगा |

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